Book Title: Niti Vakyamrutam Satikam
Author(s): Somdevsuri, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 8
________________ टीकासे होता है। स्मृतिकारोंसे भी वे अच्छी तरह परिचित मालूम होते हैं ।। इससे हम कह सकते हैं कि नीतिवाक्यामृतके कर्ता पूर्वोक्त राजनीतिक साहित्यसे यथेष्ट परिचित थे। बहुत संभव है कि उनके समयमें उक्त सबका सब साहित्य नहीं तो उसका अधिकांश उपलब्ध होगा। कमसे कम पूर्वेक्त आचार्योंके ग्रन्थोंके सार या संग्रह आदि अवश्य मिलते होंगे। इन सब बातोंसे और नीतिवाक्यामृतको अच्छी तरह पढ़नेसे हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि नीतिवाक्यामृत प्राचीन नीतिसाहित्यका सारभूत अमृत है । दूसरे शब्दोंमें यह उन सबके आधारसे और कविकी विलक्षण प्रतिभासे प्रसूत हुआ संग्रह ग्रन्थ है। जिस तरह कामन्दकने चाणक्य के अर्थशास्त्रके आधारसे संक्षेपमें अपने नीतिसरका निर्माण किया है, उसी प्रकार सोमदेवसूरिने उनके समयमें जितना नीतिसाहित्य प्राप्त था उसके आधारसे यह नीतिवाक्यामृत निर्माण किया है। दोनों में अन्तर यह है कि नीतिसार श्लोकबद्ध है और केवल अर्थशास्त्रके आधारसे लिखा गया है, परन्तु नीतिवाक्यामृत गद्य में है और अनेकानेक ग्रन्थोंके आधारसे निर्माण हुआ है, यद्यपि अर्थशास्त्रकी भी इसमें यथेष्ट सहायता ली गई है। __ कौटिलीय अर्थशास्त्रकी भूमिकामें श्रीयुत शामशास्त्रीने लिखा है कि “ यच यशोधरमहाराजसमकालेन सोमदेवसूरिणा नीतिवाक्यामृतं नाम नीतिशास्त्रं विरचितं तदपि कामन्दकीयमिव कौटिलीयार्थशास्त्रादेव संक्षिप्य संगृहीतमिति तद्ग्रन्थपदवाक्यशैलीपरीक्षायां निस्संशयं ज्ञायते।" अर्थात् यशोधर महाराजके समकालिक सोमदेवसूरिने जो 'नीतिवाक्यामृत' नामका ग्रन्थ लिखा है उसके पद और वाक्योंकी शैलीकी परीक्षासे यह निस्सन्देह कहा सकता है कि वह भी कामन्दकके नीति "विप्रकीतावूढापि पुनर्विवाहदीक्षामहतीति स्मृतिकाराः"-नी० पृ० ३७७ सू० २७, “श्रुतेःस्मृतेर्बाह्यबाह्यतरे," यशस्तिलक आ० ४, पृ० १०५-"श्रुतिस्मृतीभ्यामतीव बाह्ये"--यशस्तिलक आ० ४, पृ० १११,“ तथा च स्मृतिः" पृ० ११६ और “इति स्मृतिकारकीर्तितमप्रमाणीकृत्य” पृ० २८७ । : यशस्तिलक आ० ४ पृ० १०० में नीतिकार भारद्वाजके षामुण्य प्रस्तावके दो श्लोक और विशालाक्षके कुछ वाक्य दिये हैं। ये विशालाक्ष संभवतः वे ही नीतिकार हैं जिनका उल्लेख अर्थशास्त्र और नीतिसारमें किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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