Book Title: Niti Vakyamrutam Satikam
Author(s): Somdevsuri, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 6
________________ मौर्यवंशीय सम्राट् चन्द्रगुप्तके लिए-जो कि हमारे कथाग्रन्थों के अनुसार जैनधर्मके उपासक थे और जिन्होंने अन्तमें जिनदीक्षा धारण की थी *-आर्य चाणक्यने इस ग्रन्थको निर्माण किया था नन्दवंशका समूल उच्छेद करके उसके सिंहासन पर चन्द्रगुप्तको आसीन करानेवाले चाणक्य कितने बड़े राजनीतिज्ञ होंगे, यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है। उनकी राजनीतिज्ञताका सबसे अधिक उज्ज्वल प्रमाण यह अर्थशास्त्र है। यह बड़ा ही अद्भुत ग्रन्थ है और उस समयकी शासनव्यवस्था पर ऐसा प्रकाश डालता है जिसकी पहले किसीने कल्पना भी न की थी। इसे पढ़नेसे मालूम होता है कि उस प्राचीन कालमें भी इस देशने राजनीतिमें आश्चर्यजनक उन्नति कर ली थी। इस ग्रन्थमें मनु, भारद्वाज, उशना (शुक्र), बृहस्पति, विशालाक्ष, पिशुन, पराशर, वातव्याधि, कौणपदन्त और बाहुदन्तीपुत्र नामक प्राचीन आचार्योंके राजनीतिसम्बन्धी मतोंका जगह जगह उल्लेख आता है। आर्य चाणक्य प्रारंभमें ही कहते हैं कि पृथिवीके लाभ और पालनके लिए पूर्वाचाोंने जितने अर्थशास्त्र प्रस्थापित किये हैं, प्रायः उन सबका संग्रह करके यह अर्थशास्त्र लिखा जाता है +। इससे मालूम होता है कि चाणक्यसे भी पहले इस विषयके अनेकानेक ग्रन्थ मौजूद थे और चाणक्यने उन सबका अध्ययन किया था । परन्तु इस समय उन ग्रन्थोंका कोई पता नहीं है। चाणक्यके बादका एक और प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है जिसका नाम 'नीतिसार' है और जिसे संभवतः चाणक्यके ही शिष्य कामन्दक नामक विद्वानने * सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मि० विन्सेण्ट स्मिथ आदि विद्वान् भी इस बातको संभव समझते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैनधर्मके उपासक होंगे।' त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति' नामक प्राकृत ग्रन्थमें-जो विक्रमकी पाँचवीं शताब्दिके लगभगका हैलिखा है कि मुकुटधारी राजाओंमें सबसे अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त था जिसने जिनदीक्षा ली।-देखो जैनहितषी वर्ष १३, अंक १२। - सर्वशास्त्रानुपक्रम्य प्रयोगानुपलभ्य च। कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधिः कृतः॥ __येन शास्त्रं च शस्त्रं च नन्दराजगता च भूः। अमर्षेणोद्धतान्याशु तेनशास्त्रामदं कृतम् ॥ + पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्यैः प्रस्थापितानि प्रायशस्तानि संहृत्यैकमिदमर्थशास्त्रं कृतम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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