Book Title: Nirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 4
________________ होने का उपाय सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न करने का उपाय सिद्ध भगवान की पर्याय का स्वरूप ७२ ७४ ७६ ८० ८५ ९३ ९८ दोनों प्रकार की इच्छाओं के अभाव का उपाय ज्ञानी की सविकल्पदशा में वर्तनेवाली दशा सावधानी रखने योग्य भूलों के प्रकार त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवभाव की महिमा कैसे आवे ? सिद्ध भगवान को पर का जानना किसप्रकार होता है ? संसारी के ज्ञान का पर की ओर आकृष्ट होने का कारण ? १०१ रागादि से अपनापन तोड़ना अथवा परद्रव्यों से तोड़ना ? १०३ भण्डार में अशुद्धता नहीं होने पर भी पर्याय अशुद्ध क्यों ? १०९ छद्मस्थ के ज्ञान का परिणमन लब्धि एवं उपयोगात्मक अज्ञानी को विकार की उत्पत्ति किसप्रकार ? १११ ११२ द्रव्यकर्मों का सम्बन्ध नहीं माना जावे तो ? ११७ पाँच समवाय और विकार ११९ भावकर्म के अनुसार द्रव्यकर्म कैसे परिणम जाते हैं ? १२५ १२६ अनादि की श्रृंखला कैसे तोड़ी जा सकेगी ? शुद्धता आगामी पर्याय में कैसे जावेगी ? सम्यक् पुरुषार्थ की तारतम्यता कैसे चलेगी ? सम्यक् श्रद्धा के कारणभूत पुरुषार्थ सिद्धत्व प्रगट करने का उपाय प्रायोग्यलब्धि के पूर्व का निर्णय निष्कर्ष प्रायोग्यलब्धि में सावधानी सत्यार्थ रुचि की पहिचान क्या ? निर्विकल्पता की परिभाषा एवं उत्पत्ति प्रायोग्यलब्धि के पुरुषार्थ का प्रकार समापन ७१ VI १२७ १२९ १३० १३५ १४१ १४४ १४९ १५० १५२ १५४ १५६ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व विषय- परिचय इस पुस्तक का विषय है - निर्विकल्प - आत्मानुभूति प्रगट होने पूर्व, आत्मार्थी की अन्तरंग परिणति कैसी होती है? इसका ज्ञान करना । निर्विकल्प-आत्मानुभूति प्रगट हुए बिना, सम्यग्दर्शन नहीं होता । सम्यग्दर्शन हुए बिना ज्ञान तथा चारित्र भी सम्यक् नहीं होते । तात्पर्य यह है कि मोक्षमार्ग ही प्रारंभ नहीं होता। सम्यग्दर्शन का निश्चय लक्षण है, एक मात्र अपने त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व को अपना मानना अर्थात् उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तं सत्' में से एकमात्र ध्रुव, जिसका त्रिकाल ज्ञायक ही स्वरूप है, वही मैं हूँ; इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी मैं नहीं हूँ; ऐसा मानना । इसके विपरीत, मिथ्यादर्शन का लक्षण है, उपरोक्त ध्रुवस्वभाव अतिरिक्त जो भी रह जाते हैं, उनमें से किसी में भी अपनापन मानना अर्थात् उसरूप ही मैं हूँ - ऐसा मानना । जैसे शरीर ही मैं हूँ । इसीप्रकार स्त्री- पुत्रादि, मकान-जायदाद आदि तथा द्रव्यकर्म, भावकर्मादि रूप ही मैं हूँ, वे मेरे हैं, मैं ही उनका कर्ता भोक्ता हूँ आदि-आदि परज्ञेयों को अपना मानना तथा गुणभेदों में उलझना मिथ्यात्व है। संक्षेप में, मिथ्यात्व ही संसार का मूल है और सम्यक्त्व ही मोक्ष का मूल है। यथा 'दंसण मूलो धम्मो' इसप्रकार हर एक आत्मार्थी का तो उद्देश्य मात्र एक ही होता है कि पर को निज मानने रूप विपरीत मान्यता का अभाव करके, अपने ज्ञायक ध्रुवभावरूपी स्व को अपना मानने की यथार्थ श्रद्धा प्रगट करना ।

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