Book Title: Nemidutam
Author(s): Vikram Kavi
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 9
________________ नेमिदूतम् "खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च ।” साहित्यदर्पण ( ६ / ३२९ क ) गीति का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दबद्ध रूप में प्रकट करना अभिप्रेत है । जहाँ रागात्मकता या ध्वन्यात्मकता का होना 'धूम में अग्नि' की भाँति अनिवार्य है । गीति की आत्मा भावातिरेक है । कवि अपनी रागात्मक अनुभूति तथा कल्पना से वर्ण्य विषय तथा वस्तु को भावात्मक बना देता है । 'स्व' - गम्य अनुभूति को पर' - गम्य अनुभूति के रूप में परिणत करने के लिए कवि जिन मधुर भावापन्न रससान्द्र उक्तियों को माध्यम बनाता है, वही होती हैं गीतियाँ । गीतिकाव्य में गीतात्मकता तो होनी ही चाहिए; किन्तु ऐसी पद्य रचना जो कवि की आत्मानुभूति पर आधूत हो, अगेय होने पर भी गीतिकाव्य के भीतर समा जाती है; इसके विपरीत आत्मानुभूतिशून्य, बाह्याभिव्यंजक मात्र रचना भी गीति काव्य के भीतर आ जाने से रह जाती है । काव्य तथा संगीत दो पृथक्-पृथक् अभिव्यक्तियाँ हैं । काव्य अपनी अभिव्यञ्जना के निमित्त संगीत का सहारा नहीं चाहता और संगीत भी अपने प्राकट्य के निमित्त काव्य का अवलम्बन नहीं चाहता, परन्तु दैवयोग से दोनों का एकत्र समन्वय कला की दृष्टि से एक अत्यन्त उत्कृष्ट अभिव्यक्ति का रूप धारण करता है और गीति उसका एक मधुमय मोहन स्वरूप है । इन सब तत्वों के सहयोग से गीति काव्यरूपों में एक उत्कृष्ट काव्य रूप है । गीतिकाव्य की परम्परा, स्फुट संदेश रचनाओं के रूप में, वैदिक युग से ही प्राप्त होता है । उदाहरणस्वरूप ॠग्वेद का सरमा नामक एक कुत्ते को प्राणियों के निकट संदेश वाहक रूप में भेजने का प्रसंग यहाँ ध्यातव्य है । 'रामायण', 'महाभारत' और उनके परवर्ती काव्यों में भी इस प्रकार के स्फुट प्रसंग प्रचुर रूप में मिलते हैं । कदाचित् महामुनि वाल्मीकि के शोकोद्गारों में भी यह भावना या अनुभूति गोपित रूप में दिखाई देती है । पति - वियुक्ता प्रवासिनी सीता के प्रति प्रेषित राम का संदेशवाहक हनुमान, दुर्योधन के प्रति धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा प्रेषित श्रीकृष्ण और सुन्दरी दमयन्ती के निकट राजा नल द्वारा प्रेषित संदेशवाहक हंस इसी परम्परा के अन्तर्गत गिने जाने वाले पूर्व प्रसंग हैं | इस दिशा में 'भागवत' का वेणुगीत विशेष रूप से उद्धरणीय है, जिसकी रस-विभोर कर देने वाली सुन्दर भावना की छाप संस्कृत के गीत ग्रन्थों पर स्पष्टतया अंकित है | ८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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