Book Title: Naya Vichar Author(s): Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 5
________________ ३१६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ मार्थ पर्यायाथिक दो द्रव्योंके वास्तविक परस्पर भेदको जानता है। वस्तुतः व्यवहारपर्यायाथिकको सीमा एक द्रव्यगत गुणभेद और धर्मभेद तक ही है। द्रव्यास्तिक और द्रव्याथिक तत्त्वार्थवार्तिक ( ११३३ ) में द्रव्याथिकके स्थानमें आनेवाला द्रव्यास्तिक और पर्यायाथिकके स्थानमें आनेवाला पर्यायास्तिक शब्द इसी सूक्ष्मभेदको सूचित करता है। द्रव्यास्तिकका तात्पर्य है कि जो एकद्रव्यके परमार्थ अस्तित्वको विषय करे और तन्मलक ही अभेदका प्रख्यापन करे। पर्यायास्तिक एकद्रव्यकी वास्तविक क्रमिक पर्यायोंके अस्तित्वको मानकर उन्हींके आधारसे भेदव्यवहार करता है। इस दृष्टिसे अनेकद्रव्यगत परमार्थ भेदको पर्यायार्थिक विषय करके भी उनके भेदको किसी द्रव्यको पर्याय नहीं मानता। यहाँ पर्यायशब्दका प्रयोग व्यवहारार्थ है। तात्पर्य यह है कि एक द्रव्यगत अभेदको द्रव्यास्तिक और परमार्थ द्रव्याथिक, एकद्रव्यगत पर्यायभेदको पर्यायास्तिक और व्यवहार पर्यायाथिक, अनेक-द्रव्योंके सादृश्यमूलक अभेदको व्यवहार द्रव्याथिक तथा अनेकद्रव्यगत भेदको परमार्थ पर्यायाथिक जानता है। अनेकद्रव्यगत भेदको हम 'पर्याय' शब्दसे व्यवहारके लिए ही कहते हैं। इस तरह भेदाभेदात्मक या अनन्तधर्मात्मक ज्ञेयमें ज्ञाताके अभिप्रायानुसार भेद या अभेदको मुख्य और इतरको गौण करके द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंकी प्रवृत्ति होती है। कहाँ, कौन-सा भेद या अभेद विवक्षित है, यह समझना वक्ता और श्रोताको कुशलतापर निर्भर करता है। - यहाँ यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि परमार्थ अभेद एकद्रव्यमें ही होता है और परमार्थ भेद दो स्वतंत्र द्रव्योंमें । इसी तरह व्यावहारिक अभेद दो पृथक् द्रव्योंमें सादृश्यमूलक होता है और व्यावहारिक भेद एकद्रव्यके दो गुणों, धर्मों या पर्यायोंमें परस्पर होता है। द्रव्यका अपने गुण, धर्म और पर्यायोंसे व्यावहारिक भेद हो होता है, परमार्थतः तो उनकी सत्ता अभिन्न हो है। तीन प्रकारके पदार्थ और निक्षेप तीर्थंकरोंके द्वारा उपदिष्ट समस्त अर्थका संग्रह इन्हीं दो नयोंमें हो जाता है। उनका कथन या तो अभेदप्रधान होता है या भेदप्रधान । जगतमें ठोस और मौलिक अस्तित्व यद्यपि द्रव्यका है और परमार्थ अर्थसंज्ञा भी इसी गुण-पर्यायवाले द्रव्यको दी जाती है। परन्तु व्यवहार केवल परमार्थ अर्थसे ही नहीं चलता। अतः व्यवहारके लिए पदार्थोंका निक्षेप शब्द, ज्ञान और अर्थ तोन प्रकारसे किया जाता है। जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया आदि निमित्तोंकी अपेक्षा किये बिना ही इच्छानुसार संज्ञा रखना 'नाम' कहलाता है। जैसेकिसी लड़केका 'गजराज' यह नाम शब्दात्मक अर्थका आधार होता है। जिसका नामकरण हो चुका है उस पदार्थका उसोके आकारवाली वस्तुमें या अतदाकार वस्तुमें स्थापना करना ‘स्थापना' निक्षेप है । जैसेहाथीकी मूर्तिमें हाथीकी स्थापना या शतरंजके मुहरेको हाथी कहना। यह ज्ञानात्मक अर्थका आश्रय होता है। अतीत और अनागत पर्यायकी योग्यताको दृष्टिसे पदार्थ में वह व्यवहार करना 'द्रव्य' निक्षेप है । जैसेयुवराजको राजा कहना या जिसने राजपद छोड़ दिया है उसे भी वर्तमानमें राजा कहना। वर्तमान पर्यायकी दृष्टिसे होनेवाला व्यवहार 'भाव' निक्षेप है जैसे-राज्य करनेवालेको राजा कहना । इसमें परमार्थ अर्थ-द्रव्य और भाव हैं । ज्ञानात्मक अर्थ स्थापना निक्षेप और शब्दात्मक अर्थ नामनिक्षेपमें गभित है। यदि बच्चा शेरके लिये रोता है तो उसे शेरका तदाकार खिलौना देकर ही व्यवहार निभाया जा सकता है। जगतके समस्त शाब्दिक व्यवहार शब्दसे ही चल रहे हैं। द्रव्य और भाव पदार्थको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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