Book Title: Naya Vichar
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 15
________________ ३२६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ पदार्थों के अस्तित्वको ही समाप्त कर देता है । बुद्धकी धर्मदेशनाको परमार्थसत्य और लोकसं वृतिसत्य इन दो रूपसे' घटानेका भी प्रयत्न हुआ है । निश्चयनय परनिरपेक्ष स्वभावका वर्णन करता है। जिन पर्यायोंमें 'पर' निमित्त पड़ जाता है उन्हें वह शुद्ध स्वकीय नहीं कहता। परजन्य पर्यायोंको 'पर' मानता है। जैसे-जीवके रागादि भावोंमें यद्यपि आत्मा स्वयं उपादान होता है, वही रागरूपसे परिणति करता है, परन्तु चूंकि ये भाव कर्मनिमित्तक है, अतः इन्हें वह अपने आत्माके निजरूप नहीं मानता । अन्य आत्माओं और जगतके समस्त अजीवोंको तो वह अपना मान ही नहीं सकता, किन्तु जिन आत्मविकासके स्थानों में परका थोड़ा भी निमित्तत्व होता है उन्हें वह 'पर' के खाते में ही खतया देता है। इसीलिये समयसारमें जब आत्माके वर्ण, रस, स्पर्श आदि प्रसिद्ध पररूपोंका निषेध किया है तो उसी झोंकमें गुणस्थान आदि परनिमित्तक स्वधर्मोंका भी निषेध कर दिया गया हैं। दूसरे शब्दोंमें निश्चयनय अपने मूल लक्ष्य या आदर्शका खालिस वर्णन करना चाहता है, जिससे साधकको भ्रम न हो और वह भटक न जाय । इसलिये आत्माका नैश्चयिक वर्णन करते समय शुद्ध ज्ञायक रूप ही आत्माका स्वरूप प्रकाशित किया गया है । बन्ध और रागादिको भी उसी एक 'पर' कोटिमें डाल दिया है जिसमें पुद्गल आदि प्रकट परपदार्थ पड़े हुए हैं । व्यवहारनय परसाक्षेप पर्यायोंको ग्रहण करनेवाला होता है। परद्रव्य तो स्वतन्त्र हैं, अतः उन्हें तो अपना कहनेका प्रश्न ही नहीं उठता। अध्यात्मशास्त्रका उद्देश्य है कि वह साधकको यह स्पष्ट बता दे कि तुम्हारा गन्तव्य स्थान क्या है ? तुम्हारा परम ध्येय और चरम लक्ष्य क्या हो सकता है ? बीचके पड़ाव तुम्हारे साध्य नहीं है । तुम्हें तो उनसे बहुत ऊँचे उठकर परम स्वावलम्बी बनना है। लक्ष्यका दो टक वर्णन किये बिना मोही जीव भटक ही जाता है । साधकको उन स्वोपादानक, किन्तु परनिमित्तक विभूति या विकारोंसे उसी तरह अलिप्त रहना ऊपर उठना है, जिस तरह कि वह स्त्री, पत्रादि परचेतन तथा घन-धान्यादि पर अचेतन पदार्थोंसे नाता तोड़कर स्वावलम्बी मार्ग पकड़ता है। यद्यपि यह साधककी भावना मात्र है, पर इसे आ० कुन्दकुन्दने दार्शनिक आधार पकड़ाया है। वे उस लोकव्यवहारको हेय मानते हैं, जिसमें अंशतः भी परावलम्बन हो। किन्तु यह ध्यान में रखनेकी बात है कि ये सत्यस्थितिका अपलाप नहीं करना चाहते । वे लिखते हैं कि 'जीवके परिणामोंको निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य कर्मपर्यायको प्राप्त होते हैं और उन कर्मों के निमित्तसे जीवमें रागादि परिणाम होते है, यद्यपि दोनों अपने-अपने परिणामोंमें उपादान होते हैं, पर वे परिणमन परस्परहेतूक-अन्योन्यनिमित्तक हैं।' उन्होंने "अण्णोण्णणिमित्तण" पदसे इसी भावका समर्थन किया है। यानी कार्य उपादान और निमित्त दोनों सामग्रीसे होता है। इस तथ्यका वे अपलाप नहीं करके उसका विवेचन करते हैं और जगतके उस अहंकारमलक नैमित्तिक १. द्वे समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः ॥' -माध्यमिककारिका, आर्यसत्यपरीक्षा, श्लो० । २. 'णेव य जीवट्टाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स । जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥ ५५ ॥ -समयसार । ३. 'जीववरिणामहेदं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवोवि परिणमइ ।।८।। ण वि कुव्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तण दु परिणाम जाण दोण्हं पि ॥८॥' -समयसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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