Book Title: Naya Vichar
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 14
________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ३२५ व्यवहारनय द्रव्यग्राही और त्रिकालवर्ती सद्विशेषको विषय करता है, अतः वर्तमानकालीन पर्यायको ग्रहण करनेवाला ऋजुसूत्र उससे सूक्ष्म हो ही जाता है। शब्दभेदकी चिन्ता नहीं करनेवाले ऋजुसूत्रनयसे वर्तमानकालीन एक पर्यायमें भी शब्दभेदसे अर्थभेदकी चिन्ता करनेवाला शब्दनय सूक्ष्म है। पर्यायवाची शब्दोंमें भेद होनेपर भी अर्थभेद न माननेवाले शब्दनयसे पर्यायवाची शब्दों द्वारा पदार्थ में शक्तिभेद कल्पना करनेवाला समभिरूढनय सक्षम है। शब्दप्रयोगमें क्रियाकी चिन्ता नहीं करनेवाले समभिरूढसे क्रियाकालमें ही उन शब्दका प्रयोग माननेवाला एवम्भूत सूक्ष्मतम और अल्पविषयक है । अर्थनय, शब्दनय इन सात नयोंमें ऋजुसूत्र पर्यन्त चार नय अर्थग्राही होनेसे अर्थनय' है । यद्यपि नैगमनय, संकल्पग्राही होनेसे अर्थकी सीमासे बाहिर हो जाता था, पर नंगमका विषय भेद और अभेद दोनोंको ही मानकर उसे अर्थग्राही कहा गया है । शब्द आदि तीन नय पदविद्या अर्थात व्याकरणशास्त्र-शब्दशास्त्रकी सीमा और भूमिका वर्णन करते हैं, अतः ये शब्दनय हैं। द्रव्याथिक-पर्यायाथिक विभाग नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्याथिक नय हैं और ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायाथिक है। प्रथमके तीन नयोंकी द्रव्यपर दृष्टि रहती है, जबकि शेष चार नयोंका वर्तमानकालीन पर्यायपर ही विचार चाल होता है । यद्यपि व्यवहारनयमें भेद प्रधान है और भेदको भी कहीं-कहीं पर्याय कहा है, परन्तु व्यवहारनय एकद्रव्यगत ऊर्ध्वतासामान्यमें कालिक पर्यायोंका अन्तिम भेद नहीं करता, उसका क्षेत्र अनेकद्रव्यमें भेद करनेका मुख्यरूपसे है । वह एकद्रव्यकी पर्यायोंमे भेद करके भी अन्तिम एकक्षणवर्ती पर्याय तक नहीं पहुँच पाता, अतः इसे शुद्ध पर्यायाथिक में शामिल नहीं किया है । जैसे कि नंगमनय कभी पर्यायको और कभी द्रव्य को विषय करनेके कारण उभयावलम्बी होने में द्रव्यार्थिकमें ही अन्तर्भूत है उसी तरह व्यवहारनय भी भेदप्रधान होकर भी द्रव्यको विषय करता है, अतः वह भी द्रव्याथिककी ही सोमामें है । ऋजुसूत्रादि चार नय तो स्पष्ट ही एकसमयवर्ती पर्यायको सामने रखकर विचार चलाते हैं, अतः पर्यायाथिक हैं। आ० जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ऋजुसूत्रको भी द्रव्याथिक मानते हैं । निश्चय और व्यवहार अध्यात्मशास्त्रमें नयोंके निश्चय और व्यवहार ये दो भेद प्रसिद्ध है। निश्चयनयको भतार्थ और व्यवहारनयको अभतार्थ भी वहीं बताया है। जिस प्रकार अद्वैतवादमें पारमार्थिक और व्यावहारिक दो रूपमें और शन्यवाद या विज्ञानवादमें परमार्थ और सांवृत दो रूपमें या उपनिपदोंमें सूक्ष्म और स्थूल दो रूपोंमें तत्त्वके वर्णनकी पद्धति देखी जाती है उसी तरह जैन अध्यात्ममें भी निश्चय और व्यवहार इन दो प्रकारोंको अपनाया है । अन्तर इतना है कि जैन अध्यात्मका निश्चयनय वास्तविक स्थितिको उपादानके आधारसे पकड़ता है; वह अन्य पदार्थोके अस्तित्वका निषेध नहीं करता; जब कि वेदान्त या विज्ञानाद्वैतका परमार्थ अन्य -सिद्धिवि० । लघी० श्लो० ७२ । १. 'चत्वारोऽर्थाश्रयाः शेषास्त्रयं शब्दतः । २. विशेषा० गा० ७५,७७,२२६२ । ३. समयसार गा० ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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