________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : ३२३
उनके मतमें कालकारकादिभेद होनेपर भी अर्थ एकरूप बना रहता है । तब यह नय कहता है कि तुम्हारी मान्यता उचित नहीं है। एक ही देवदत्त कैसे विभिन्न लिंगक, भिन्नसंख्याक और भिन्नकालीन शब्दोंका वाच्य हो सकेगा? उसमें भिन्न शब्दोंकी वाच्यभूत पर्यायें भिन्न-भिन्न स्वीकार करनी ही चाहिये, अन्यथा लिंगव्यभिचार, साधनव्यभिचार और कालव्यभिचार आदि बने रहेंगे। व्यभिचारका यहाँ अर्थ है शब्दभेद होनेपर अर्थभेद नहीं मानना, यानी एक ही अर्थका विभिन्न शब्दों से अनुचित सम्बन्ध । अनुचित इसलिये कि हर शब्दकी वाचकशक्ति जुदा-जुदा होती है। यदि पदार्थ में तदनुकूल वाक्यशक्ति नहीं मानी जाती है तो अनौचित्य तो स्पष्ट ही है, उनका मेल कैसे बैठ सकता है ?
काल स्वयं परिणमन करनेवाले वर्तनाशील पदार्थोके परिणमनमें साधारण निमित्त होता है । इसके भूत, भविष्यत् और वर्तमान ये तीन भेद हैं । केवल शक्ति तथा अनपेक्ष द्रव्य और शक्तिको कारक नहीं कहते; किन्तु शक्तिविशिष्ट द्रव्यको कारक कहते हैं । लिंग चिह्नको कहते हैं। जो गर्भधारण करे वह स्त्री, जो पुत्रादिकी उत्पादक सामर्थ्य रखे वह पुरुष और जिसमें दोनों ही सामर्थ्य न हों वह नपुंसक कहलाता है। कालादिके ये लक्षण अनेकान्त अर्थमें ही बन सकते है। एक ही वस्तु विभिन्न सामग्रीके मिलनेपर को रूपसे परिणति कर सकती है। कालादिके भेदसे एक ही द्रव्यकी नाना पर्यायें हो सकती हैं । सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य वस्तु में ऐसे परिणमनकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि सर्वथा नित्यमें उत्पाद और व्यय तथा सर्वथा क्षणिकमें स्थैर्य-ध्रौव्य नहीं है। इस तरह कारकव्यवस्था न होनेसे विभिन्न कारकोंमें निष्पन्न षट्कारकी, स्त्रीलिंगादि लिंग और वचनभेद आदिकी व्यवस्था एकान्तपक्षमें सम्भव नहीं है।
यह शब्दनय वैयाकरणोंको शब्दशास्त्रको सिद्धिका दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है, और बताता है कि सिद्धि अनेकान्तसे ही हो सकती है। जब तक वस्तुको अनेकान्तात्मक नहीं मानोगे, तब तक एक ही वर्तमान पर्यायमें विभिन्नलिंगक, विभिन्नसंख्याक शब्दोंका प्रयोग नहीं कर सकोगे, अन्यथा व्यभिचार दोष होगा । अतः उस एक पर्यायमें भी शब्दभेदसे अर्थभेद मानना ही होगा। जो वैयाकरण ऐसा नहीं मानते उनका शब्दभेद होनेपर भी अर्थभेद न मानना शब्दनयाभास है। उनके मतमें उपसर्गभेद, अन्यपुरुषकी जगह मध्यमपुरुष आदि पुरुषभेद, भावि और वर्तमानक्रियाका एक कारकसे सम्बन्ध आदि समस्त व्याकरणको प्रक्रियाएँ निराधार एवं निविषयक हो जायेंगी। इसीलिये जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता आचार्यवयं पूज्यपादने अपने जैनेन्द्रव्याकरणका प्रारम्भ "सिद्धिरनेकान्तात्" सूत्रसे और आचार्य हेमचन्द्रने हेमशब्दानुशासनका प्रारम्भ "सिद्धि स्याद्वादात्" सूत्रसे किया है । अतः अन्य वैयाकरणोंका प्रचलित क्रम शब्दनयाभास है। समभिरूढ और तदाभास
एककालवाचक, एकलिंगक तथा एकसंख्याक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं । समभिरूढनय' उन प्रत्येक पर्यायवाची शब्दोंका भी अर्थभेद मानता है। इस नयके अभिप्रायसे एकलिंगवाले इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन तीन शब्दोंमें प्रवृत्तिनिमित्तकी भिन्नता होनेसे भिन्नार्थवाचकता है । शक्र शब्द शासनक्रियाकी अपेक्षासे, इन्द्र शब्द इन्दन-ऐश्वर्य क्रियाकी अपेक्षासे और पुरन्दर शब्द पूरण क्रियाकी अपेक्षासे, प्रवृत्त हुआ है । अतः तीनों शब्द विभिन्न अवस्थाओंके वाचक है । शब्दनयमें एकलिंगवाले पर्यायवाची शब्दोंमें अर्थनहीं था, पर समभिरूढनय प्रवृत्तिनिमित्तोंकी विभिन्नता होनेसे पर्यायवाची शब्दोंमें भी अर्थभेद मानता है। यह नय उन कोशकारोंको दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है, जिनने एक ही राजा या पृथ्वीके अनेक नाम
१. 'अभिरूढस्तु पर्याय:'-लघी० श्लो० ४४ । अकलङ्कग्रन्थत्रयटि पृ० १४७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org