Book Title: Naya Vichar
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 4
________________ दो नय-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इस तरह सामान्यतया अभिप्रायोंकी अनन्तता होनेपर भी उन्हें दो विभागों में बाँटा जा सकता हैएक अभेदको ग्रहण करनेवाले और दूसरे भेदको ग्रहण करनेवाले । वस्तु में स्वरूपतः अभेद है, वह अखंड है और अपने में एक मौलिक है । उसे अनेक गुण, पर्याय और धर्मोके द्वारा अनेकरूपमें ग्रहण किया जाता है । अभेदग्राहिणी दृष्टि द्रव्यदृष्टि कही जाती है और भेदग्राहिणी दृष्टि पर्यायदृष्टि । द्रव्यको मुख्यरूप से ग्रहण करनेवाला नय द्रव्यास्तिक या अव्युच्छित्ति नय कहलाता है और पर्यायको ग्रहण करनेवाला नय पर्यायास्तिक या व्युच्छित्ति नय । अभेद अर्थात् सामान्य और भेद यानी विशेष । वस्तुओंमें अभेद और भेदकी कल्पना के दो-दो प्रकार हैं | अभेदकी एक कल्पना तो एक अखण्ड मौलिक द्रव्य में अपनी द्रव्यशक्तिके कारण विवक्षित अभेद है, जो द्रव्य या ऊर्ध्वता सामान्य कहा जाता है । यह अपनी कालक्रमसे होनेवाली क्रमिक पर्यायोंमें ऊपरसे नीचे तक व्याप्त रहनेके कारण ऊर्ध्वतासामान्य कहलाता है। यह जिस प्रकार अपनी क्रमिक पर्यायको व्याप्त करता है उसी तरह अपने सहभावी गुण और धर्मोको भी व्याप्त करता है । दूसरी अभेदकल्पना विभिन्नसत्ता अनेक द्रव्यों में संग्रहकी दृष्टिसे की जाती है । यह कल्पना शब्दव्यवहार के निर्वाह लिए सादृश्यको अपेक्षासे की जाती है । अनेक स्वतन्त्रसत्ताक मनुष्यों में सादृश्यमूलक मनुष्यत्व जातिकी अपेक्षा मनुष्यत्व सामान्यकी कल्पना तिर्यक् सामान्य कहलाती है । यह अनेक द्रव्योंमें तिरछी चलती है । एक द्रव्यकी पर्यायों में होनेवाली एक भेदकल्पना पर्यायविशेष कहलाती है तथा विभिन्न द्रव्योंमें प्रतीत होनेवाली दूसरी भेद कल्पना व्यतिरेकविशेष कही जाती है । इस प्रकार दोनों प्रकारके अभेदोंको विषय करनेवाली दृष्टि द्रव्यदृष्टि है और दोनों भेदोंको विषय करनेवाली दृष्टि पर्यायदृष्टि है । परमार्थं और व्यवहार ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३१५ परमार्थतः प्रत्येक द्रव्यगत अभेदको ग्रहण करनेवाली दृष्टि ही द्रव्यार्थिक और प्रत्येक द्रव्यगत पर्यायभेदको जाननेवाली दृष्टि ही पर्यायार्थिक होती है । अनेक द्रव्यगत अभेद औपचारिक और व्यावहारिक हैं, अतः उनमें सादृश्यमूलक अभेद भी व्यावहारिक ही है, पारमार्थिक नहीं । अनेक द्रव्योंका भेद पारमार्थिक ही है । 'मनुष्यत्व' मात्र सादृश्यमूलक कल्पना है । कोई एक ऐसा मनुष्यत्व नामका पदार्थ नहीं है, जो अनेक मनुष्यद्रव्योंमें मोतियोंमें सूतकी तरह पिरोया गया हो । सादृश्य भी अनेक निष्ठ धर्म नहीं हैं, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति में रहता है । उसका व्यवहार अवश्य परसापेक्ष है, पर स्वरूप तो प्रत्येकनिष्ठ ही है । अत: किन्हीं भी सजातीय या विजातीय अनेक द्रव्योंका सादृश्यमूलक अभेदसे संग्रह केवल व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं । अनन्त पुद्गलपरमाणु द्रव्योंको पुद्गलत्वेन एक कहना व्यवहारके लिए है । दो पृथक् परमाणुओंकी सत्ता कभी भी एक नहीं हो सकती । एक द्रव्यगत ऊर्ध्वता सामान्यको छोड़कर जितनी भी अभेद-कल्पनाएँ अवान्तरसामान्य या महासामान्यके नामसे की जाती हैं, वे सब व्यावहारिक हैं । उनका वस्तुस्थितिसे इतना ही सम्बन्ध है वे शब्दोंके द्वारा उन पृथक् वस्तुओंका संग्रह कर रही हैं। जिस प्रकार अनेकद्रव्यगत अभेद व्यावहारिक है। उसी तरह एक द्रव्यमें कालिक पर्यायभेद वास्तविक होकर भी उनमें गुणभेद और धर्मभेद उस अखंड अनिर्वच नीय वस्तुको समझने-समझाने और कहने के लिए किया जाता है । जिस प्रकार पृथक् सिद्ध द्रव्यों को हम विश्लेषणकर अलग स्वतन्त्रभावसे गिना सकते हैं उस तरह किसी एक द्रव्यके गुण और धर्मो को नहीं बता सकते । अतः परमार्थद्रव्यार्थिकनय एकद्रव्यगत अभेदको विषय करता है, और व्यवहार पर्यायार्थिक एकद्रव्यकी क्रमिक पर्यायोंके कल्पित भेदको । व्यवहारद्रव्यार्थिक अनेकद्रव्यगत कल्पित अभेदको जानता है और पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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