Book Title: Naya Vichar
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 7
________________ ३१८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति-ग्रन्थ ग्रहण करनेवाली दृष्टिका शब्दनयमें समावेश होता है। एक ही साधनसे निष्पन्न तथा एककालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं । अतः इन पर्यायवाची शब्दोंसे भी अर्थभेद माननेवाली दृष्टि समभिरूढ में स्थान पाती है । एवम्भूत नय कहता है कि जिस समय, जो अर्थ, जिस क्रियामें परिणत हो, उसी समय, उसमें तत्क्रियासे निष्पन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिये । इसकी दृष्टिसे सभी शब्द क्रियासे निष्पन्न हैं । गुणवाचक 'शुक्ल' शब्द शुचिभवनरूप क्रियासे, जातिवाचक 'अश्व' शब्द आशुगमनरूप क्रियासे, क्रियावाचक 'चलति' शब्द चलनेरूप क्रियासे और नामवाचक यदृच्छाशब्द 'देवदत्त' आदि भी 'देवने इसको दिया' आदि क्रियाओंसे निष्पन्न होते हैं । इस तरह ज्ञानाश्रयी, अर्थाश्रयी और शब्दाश्रयी समस्त व्यवहारोंका समन्वय इन नयोंमें किया गया है । मूल नय सात नयोंके मूल भेद सात हैं— नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत । आचार्य सिद्धसेन ( सन्मति० ११४ - ५ ) अभेदग्राहो नैगमका संग्रहमें तथा भेदग्राही नैगमका व्यवहारनयमें अन्तर्भाव करके नयोंके छह भेद ही मानते हैं । तत्त्वार्थ भाष्य में नयोंके मूल भेद पाँच मानकर फिर शब्दनयके तीन भेद करके नयों के सात भेद गिनाये हैं । नैगमनयके देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी भेद भी तत्त्वार्थ भाष्य (१।३४(३५) में पाये जाते हैं । षट्खंडागममें नयोंके नैगमादि शब्दान्त पाँच भेद गिनाये हैं, पर कसायपाहुडमें मूल पाँच भेद गिनाकर शब्दनयके तीन भेद कर दिये हैं और नगमनयके संग्रहिक और असंग्रहिक दो भेद भी किये हैं । इस तरह सात नय मानना प्रायः सर्वसम्मत है । नैगमनय' संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नैगमनय होता है । जैसे कोई पुरुष दरवाजा बनानेके लिये लकड़ी काटने जंगल जा रहा है। पूछनेपर वह कहता है कि 'दरवाजा लेने जा रहा हूँ ।' यहाँ दरवाजा बनाने के संकल्प में ही 'दरवाजा' व्यवहार किया गया है । संकल्प सत्में भी होता है और असत्में भी । इसी नैगमनयकी मर्यादामें अनेकों औपचारिक व्यवहार भी आते हैं । 'आज महावीर जयन्ती है' इत्यादि व्यवहार इसी नयी दृष्टि से किये जाते हैं। निगम गाँवोंको कहते हैं, अतः गाँवमें जिस प्रकारके ग्रामीण व्यवहार चलते हैं वे सब इसी नयकी दृष्टिसे होते हैं । और अभेद दोनों ही इसके कार्य - 'अकलंकदेवने धर्म और धर्मी दोनोंको गौण-मुख्यभावसे ग्रहण करना नैगमनयका कार्य बताया है । जैसे -- 'जीवः' कहने से ज्ञानादि गुण गौण होकर 'जीव द्रव्य' ही मुख्यरूपसे विवक्षित होता है और 'ज्ञानवान् जीवः' कहने में ज्ञान-गुण मुख्य हो जाता है और जीव द्रव्य गौण । यह न केवल धर्मको ही ग्रहण करता है और न केवल धर्मीको हो । विवक्षानुसार दोनों ही इसके विषय होते हैं । भेद क्षेत्रमें आते हैं । दो धर्मो में दो धर्मियोंमें तथा धर्म और धर्मीमें एकको प्रधान तथा अन्यको गौण करके ग्रहण करना नैगमनयका ही कार्य है, जबकि संग्रहनय केवल अभेदको ही विषय करता है और व्यवहारनय मात्र भेदको ही । यह किसी एकपर नियत नहीं रहता । अतः इसे ( ४ नैकं गमः ) नैगम कहते हैं । कार्यकारण और आधार - आधेय आदिकी दृष्टिसे होनेवाले सभी प्रकारके उपचारोंको भी यही विषय करता है । १. "अनभिनिवृतार्थ संकल्पमात्रग्राही नैगम: ।" - सर्वार्थसि० ११३३ ॥ २. लघी० स्ववृ० श्लोक ३९ । ३. त० श्लोकवा० श्लो० २६९ । ४. धवलाटी० सत्प्ररू० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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