Book Title: Navtattva Sahitya ane Ek Aprakat Chaupai Author(s): Suyashchandravijay, Sujaschandravijay Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 5
________________ फेब्रुआरी - २०१२ ११५ सासोसास लेतो जणाय, चउवीसमो ते ए कहवाय, आतप ते सूर्यनी परइ, उद्योत कर्म अजुयालो करइ ॥३९॥ निर्माणकर्म ते संधो सार, अंगोपांग रूडइ आकार, रूडी गति हंस सरखी जांण, त्रस सकति चालवानी आंण ॥४०॥ बादर आवइ द्रष्टिगोचरइ, परजाप्तो परजा पूरी करइ, प्रतेक एक सरीर एक जीव ज होय, थिरनाम अंगोपांग णीश्चल होय ॥४१॥ शुभनांम नाभि उपरि रूडो भणो, शुभग ते लोकने सोहांमणो, सुस्वर बोलें मीठे स्वरइ, आदेय जे वचन परिमांणज करे ॥४२॥ जसकर्म जेहनो जस बोलाय, सुर-नर-तिरीआयु बंधाय, तीर्थंकरनांमकर्म जे जांण, ए भेद बितालीस पून्य प्रमाण ॥४३॥ दुहा चउथो तत्त्व हवे सांभलो, पाप तणे उदय एह, ब्यासी भेद जिनवर कह्या, मनसुं धारो तेह ॥४४॥ मति-श्रुत-अवधि-मनपर्जव, केवलज्ञांन ए पंच, आवर्ण ढाकित होय, पाप तणो फल संच ॥४५।। चोपड़ दानांतराय दांन नवि देवाय, लाभांतराय लाभ नवि थाय, भोगांतराय छतइ भोग विजोग, उवभोगे वली वली नवि जोग ॥४६।। एवइ कहुं वीर्य अंतराय, बल-पराक्रम ते नवि फोरवाय, चषुदर्शनावर्ण जे नेत्र विषं न होय, अचषुदर्शण नेत्र वीन अवर इंद्रीबल न जोय ॥४७|| अवधिदर्शनावर्ण जे अवधि न उपजइ, केवलदर्शनावर्ण जे केवल न संपजइ, सुखें जागें ते नीद्रा जोय, कष्टें जागेइ निंद्रानिंद्रा होय ॥४८॥ बिठां निंद्रा आवइ जेह, प्रचलानिंद्रा कहीए तेह, वाटइ जांता उंघतो जाय, प्रचलाप्रचला ते कहवाय ॥४९॥ निंद्रामाहि करइ सव काम, थीणधीनिंद्रा तेहनो नाम, नीचगोतर ते नीची जाति, असातावेदनी पांमे घात ॥५०॥Page Navigation
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