Book Title: Narad ke Vyaktitva ke Bare me Jain Grantho me Pradarshit Sambhramavastha Author(s): Kaumudi Baldota Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 2
________________ सप्टेम्बर २००९ सम्बन्ध प्रमुखता से नामसंकीर्तन तथा गायन से है। ऋग्वेद के आठवें मण्डल में नारद काण्व ऋषि कहता है, 'हे इन्द्र, तुम्हारा रथ और अश्व वीर्यशाली हैं । हे अपार कर्तृत्व के धनी, तुम खुद वीर्यशाली हो तथा तुम्हारा नामसंकीर्तन भी वीर्यशाली है ।" रामायण के बालकाण्ड में नारद द्वारा सनत्कुमार को रामायण नामक महाकाव्य का 'गान' सुनाने का उल्लेख है । पुराणकाल में प्रचलित नवविधा भक्ति का पहला प्रकार भी 'श्रवण' ही है। नारद से जुडे हुए नामसंकीर्तन अथवा श्रवण अर्थात् भक्तिसम्प्रदाय से निगडित सन्दर्भ हमें ऋग्वेद से ही आंशिक रूप से प्राप्त होते हैं । सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन परम्परा में 'नामसंकीर्तन' तथा 'श्रवण' का स्थान प्राथमिक स्तर पर अधोरेखित नहीं किया गया है । इसी कारण से 'श्रोतव्य' का अर्थ श्रवणीय महाव्रतों के रूप में प्रस्तुत किया है। I ऋषिभाषित की अन्तिम गाथा में नारद ने सत्य, दत्त ( भिक्षाचर्य) और ब्रह्मचर्य को उपधान याने 'आश्रयणीय तप' कहा है । यही सूत्र पकडकर आवश्यनयुक्ति आदि ग्रन्थों में 'सोय' शब्द का अर्थ 'शौच' और 'शौच' शब्द का अर्थ 'सत्य' बताया है। कोई भी साधु दूसरे को उपदेशश्रवण कराये बिना भिक्षा का स्वीकार नहीं करता, इस तथ्य का सूचन भी इसीसे होता है । जैन परम्परा ने नारद के ब्रह्मचारी होने की मान्यता आखिरतक कायम रखी है। हिन्दु पुराणों की तरह उसे विवाहित और पुत्रपौत्रसहित नहीं माना है । १४५ सर्वदा, सर्वत्र और सर्वकाल विचरण करनेवाला होकर भी निर्ममत्व अर्थात् अनासक्ति के कारण सदैव उपलिप्तता से रहित होने का जो जिक्र ऋषिभाषित में किया है इससे भी नारद के सर्वसंचारित्व तथा अनासक्ति का द्योतन होता है । इसी सूत्र को आगे जाकर दोनों परम्परा ने बरकरार रखा है । ऋषिभाषित में नारद का जो गौरवान्वित स्थान अंकित किया है और उनके मुख से जिन-जिन शब्दों का प्रयोग करवाया है, इससे यह प्रतीत होता है कि यद्यपि हिन्दु पुराणों के परिवर्तनों के साथ साथ नारद के व्यक्तिमत्व में अनेक प्रकार के परिवर्तन आये तथापि आचाराङ्ग के समकालीन ग्रन्थ में अंकित उनके आदरणीय स्थान की छाया जैन ग्रन्थकारों में मन पर तथा साहित्य पर सर्वदा छायी रही । अनेक परस्परविरोधी मतों का तथा विशेषणों का मिलन करते हुए उन्हें जो कठिनाई महसूस हुई इसीके कारण जैन आचार्यों की संभ्रमावस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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