Book Title: Narad ke Vyaktitva ke Bare me Jain Grantho me Pradarshit Sambhramavastha
Author(s): Kaumudi Baldota
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 20
________________ सप्टेम्बर २००९ १६३ के प्राकृत कथात्मक जैन ग्रन्थोंपर भागवतपुराण, विष्णुपुराण आदि में निहित अंशों का समान्तर रूप से प्रभावित होता जा रहा है, यह बात दिखायी देती है । इसी वजह से नायाधम्म तथा उत्तरवर्ती अनेक कथाग्रन्थों में नारद का अनादरणीय रूप ही दृग्गोचर होता है । उपसंहार : • जैन परम्परा ने नारद को 'ऋषि', 'देवनारद' तथा 'अनगार' इन शब्दों से व्याहृत किया है । उसे कहीं भी 'महर्षि' तथा 'देवर्षि' सम्बोधित नहीं किया है। दोनों परम्पराओं ने नारद का 'ब्राह्मणत्व' तथा 'ब्रह्मचर्यत्व' स्पष्टता से कहा है । नारद का जटासहित होना, पादुका तथा कमण्डलु धारण करना, वीणावादन आदि शारीरिक विशेषताएँ भी जैन परम्परा ने प्रायः बरकरार रखी हैं । ऋग्वेद से ही सूचित होनेवाला तथा महाभारत में भी प्रतिबिम्बित 'यज्ञीय हिंसा' का विरोध, तीव्र ज्ञानलालसा तथा उसका सर्वसंचारित्व ये गुण जैन परम्परा को अपनी मान्यताओं के अनुकूल लगे होंगे। इसी वजह से जैन साहित्य ने 'नारद' की व्यक्तिरेखा कई सदियों तक जारी रखी । दोनों परम्पराओं ने नारद 'एक है, दो हैं, अनेक है या युगयुग में होनेवाले हैं। इसके बारे में स्पष्ट निर्देश नहीं दिये हैं। जिस लेखक ने नारद की ओर जिस दृष्टि से देखा उसी तरह से उसे प्रस्तुत किया है । इसलिए नारद कहीं 'देवनारद' है, कहीं 'नारदपुत्त' है तो कहीं नारदीय 'परिव्राजक' है । कालविपर्यास भी दोनों परम्पराओं में समानता से दिखायी देता है । इसके फलस्वरूप हम कह सकते हैं कि जैन सिद्धान्तों से कुछ अंशों से मिलनेवाली एक विचारधारा वैदिक तथा वेदोत्तरकाल में भी जारी थी जिसका विचार महावीर के काल से पन्द्रहवी सती तक के जैन साहित्य में अनुस्यूत होता रहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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