Book Title: Narad ke Vyaktitva ke Bare me Jain Grantho me Pradarshit Sambhramavastha Author(s): Kaumudi Baldota Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 1
________________ १४४ अनुसन्धान ४९ 'नारद' के व्यक्तित्व के बारे में जैन थ्रन्थों मे प्रदर्शित संभ्रमावस्था (वैदिक तथा वेदोत्तरकालीन परम्परा के सन्दर्भ में) ले. शोधछात्रा : डॉ. कौमुदी बलदोटा प्रस्तावना : प्राकृत भाषाभ्यासी होने के नाते ‘इसिभासियाई' नाम के अर्धमागधी प्रकीर्णक ग्रन्थ की ओर मेरा ध्यान विशेष आकृष्ट हुआ । समझ में आया कि अपना अनेकान्तवादी उदारमतवादी स्वरूप बरकरार रखते हुए, इस ग्रन्थ में जैन विचारवंतों के साथ साथ ब्राह्मण तथा बौद्ध परम्परा के विचारवन्तों का भी आदरपूर्वक जिक्र किया है । 'ऋषिभाषित' में कुल ४५ ऋषियों के विचार शब्दाङ्कित किये हैं । इस ग्रन्थ की अर्धमागधी भाषा का स्तर आचाराङ्ग जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ की भाषा से मिलताजुलता है। प्राकृतविद्या के क्षेत्र में यह तथ्य अब स्वीकृत हो चुका है। ऋषिभाषित में 'ऋषि' नारद : ऋषिभाषित का पहला अध्ययन नारदविषयक है । नारद के लिए उपयुक्त 'ऋषि' शब्द ब्राह्मण परम्परा का द्योतक मान सकते हैं। नारद का गौरव 'अर्हत्, देव, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, विरत' इन विशेषणों से किया है । इस अध्ययन में 'सोयव्व' याने 'श्रोतव्य' क्या है, इससे सम्बन्धित नारद के विचार अंकित किये हैं। प्राणातिपातविरमण आदि चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन नारद के मुख से किया है। चातुर्याम धर्म की परम्परा पार्श्वनाथ के इतिहास में पायी जाती है । इससे यह तथ्य उजागर होता है कि महावीर के पहले भी नारद के गौरवान्वित स्थान की परम्परा जैन विचारधारा में दृढमूल है। नारद का यह सम्मानित स्थान हमारे शोधनिबन्ध का प्रारम्भबिन्दु बन गया। यद्यपि 'श्रोतव्य' का अर्थ 'श्रवणीय' है और जैन परम्परा ने नारदद्वारा प्रतिपादित चातुर्याम धर्म को श्रवणीयता का दर्जा दिया है, तथापि श्रवणीयता का नेशनल संस्कृत कॉन्फरन्स, नागपुर, १,२,३ मार्च २००९ में पठित शोधप्रबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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