Book Title: Narad ke Vyaktitva ke Bare me Jain Grantho me Pradarshit Sambhramavastha
Author(s): Kaumudi Baldota
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 18
________________ सप्टेम्बर २००९ शीलोपदेशमाला में 'जनमारक' नारद : बारहवी सदी में जयसिंहगणि ने जैन महाराष्ट्री भाषा में रचे हुए शीलोपदेशमाला ग्रन्थ में 'नारद' के सन्दर्भ में प्रयुक्त एकमेव श्लोक नारदसम्बन्धी सम्भ्रमावस्था का अत्युच्च शिखर माना जा सकता है । वे कहते हैं कलिकारओ वि जनमारओ वि सावज्ज- जोगनिरओ वि । जं नारओ वि सिज्झइ तं खलु सीलस्स माहप्पं ॥ गाथा क्र० १२ जिस शील के माहात्म्य का यहाँ जिक्र किया है उस शीलपालन की तार्किक असंभाव्यता इस गाथा में निहित है । कलिकारक, जनमारक तथा सावद्ययोगनिरत नारद इस जन्म में 'शीलपालन करनेवाला होना' कतई सम्भव नहीं है । जैन परम्परा के अनुसार बीच के जन्म में अगर उसने नरक अथवा देवगति प्राप्त की है तो इन दोनों गतियों में व्रतधारण शीलपालन आदिरूप पुरुषार्थ की भी गुंजाईश नहीं है । इसलिए गाथा की द्वितीय पंक्ति में नारद के सिद्धगति प्राप्त करने का उल्लेख हम संभ्रमावस्था का द्योतक मान सकते हैं । १६१ इस ग्रन्थ की बालावबोध - टीका में मेरुसुन्दरगणि ने पर्वतक- नारद वृत्तान्त, रुक्मिणी-सत्यभामा वृत्तान्त तथा नारद की उपाध्याय द्वारा परीक्षा आदि कथाएँ संक्षेप में उद्धृत की हैं। लेकिन नारद के 'जनमारक' होने का उदाहरण टीका में प्रस्तुत नहीं किया है । टीकाकार की दृष्टि नारद के प्रति मूल लेखक से अधिक आदरणीयता की दिखायी देती है । ६८ भागवतपुराण में नारदविषयक 'परस्परविरोधी अंश' : I भागवतपुराण के प्राय: सभी स्कन्धों में नारदविषयक उल्लेख भरे पडे हुए हैं। वे सब अंश अगर एकत्रित किये जाए तो उनमें परस्परविरोधिता स्पष्टतः नजर आती है । जैसे कि- व्यासद्वारा देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा, ब्रह्मा के इन्द्रियों से नारद का प्रगट होना, भगवान् की कृपा से त्रैलोक्यसंचारी होना १, विष्णु के चौबीस अवतारों में से तिसरा अवतार होना ७२, दक्षपुत्रों को नारद द्वारा गृहस्थाश्रमी न बनकर विरक्त होने का उपदेश, दक्ष के शाप से प्रभावित होकर ब्रह्मचारी बनना तथा कलह मचाते हुए भ्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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