Book Title: Naishkarmya Siddhi
Author(s): Prevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
Publisher: Achyut Granthmala Karyalaya

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Page 5
________________ प्राकथन श्रीहरिः औत्पत्तिकी शक्तिरशेषवस्तुप्रकाशने कार्यवशेन यस्याः। विज्ञायते विश्वविवर्तहेतोर्नमामि तां वाचमचिन्त्यशक्तिम् ।। यदीयसम्पर्कमवाप्य केवलं वयं कृतार्थी निरवद्यकीर्तयः । जगत्सु ते तारितशिष्यपङ्क्तयो जयन्ति देवेश्वरपादरेणवः ।। इस संसारमें प्राणिमात्रकी प्रवृत्तियोंका मुख्य उद्देश्य समस्त दुःखोंकी निवृत्ति और परम सुखकी प्राप्ति ही है। इसीलिए जीव सुखकी प्राप्ति और दुःखकी निवृत्ति के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करते हैं। मनुष्य चाहता है मैं सदा सुखी रहूँ, कभी भी दुःख न पाऊँ । इसी उद्देश्यकी पूर्तिके लिए वह अथक प्रयत्न करता है । स्त्री, पुत्र, धन आदि की प्राप्तिके लिए भी प्रयत्न इसी उद्देश्यकी पूर्तिके लिए किया जाता है । मन्दबुद्धि पुरुष केवल तात्कालिक सुखकी प्राप्तिसे ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसी कारण वे आपातरम्य विषयोंमें मुग्ध होकर उनकी प्राप्तिके लिए अनेक कष्ट उठाते हैं, अनेकानेक कर्म करते हैं। शुभाशुभ कर्मके अनुसार ही प्राणी ऊँच, नीच शरीरोंको ग्रहण करते रहते हैं . नद्यां कीटा इवावर्तात् आवर्तान्तरमाशु ते। व्रजन्तो जन्मनो जन्म लभन्ते नैव निवृतिम् ।। जैसे नदीके आवर्तमें पड़े हुए कीट विवश होकर एक आवर्तसे दूसरे आवर्तमें चले जाते हैं, कभी भी सुख नहीं पाते वैसे ही अविद्यावशवर्ती जीव एक शरीरसे दूसरे शरीरमें भ्रमण करते हुए संसारमें कभी भी सुख नहीं पाते। क्योंकि सुख-प्राप्तिकी कामनासे किये गए शुभाशुभ कर्मोंसे प्रेरित हुआ यह जीव प्रारब्धानुसार जिन जिन योनियोंको धारण करता है, उन सभी योनियोंमें प्रिय-वियोग और अप्रिय-समागमसे उत्पन्न

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