Book Title: Naishkarmya Siddhi
Author(s): Prevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
Publisher: Achyut Granthmala Karyalaya

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Page 12
________________ ( द > धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थे ऽर्थायोपकल्पते । नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥ कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता । जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नाथ यश्चेह कर्मभिः ।। ( १-२-६-१० ) (धर्म अपवर्ग — मोक्ष --- के लिए कर्तव्य है, न कि धनके लिए | धन सञ्चय धर्मके लिए कर्तव्य है, न कि विषय-सुखके लिए | विषय - सेवन जीवनके लिए ही है, इन्द्रियोंकी परितृप्तिके लिए नहीं, अर्थात् उतना ही विषय सेवन किया जाय जितनेसे अपने जीवनका निर्वाह हो जाय और जीवन भी तत्त्वकी जिज्ञासा - आत्मसाक्षात्कार - के लिए है, नश्वर सांसारिक सुखके सञ्चय के लिए नहीं अर्थात् जीवित रहनेका फल यह नहीं है कि अनेक प्रकारके कर्मों के चक्कर में पड़कर क्षणभङ्गुर सांसारिक सुखकी प्राप्तिमें ही समस्त आयु बरबाद की जाय ? क्योंकि जीवनका परम लाभ तो वास्तविक तत्वको जानना ही है ।) यही बात समस्त दर्शनों में भिन्न-भिन्न रीति से प्रतिपादित की गई है । सब दर्शनों में प्रधान दर्शन हैं - वेदान्त दर्शन । वही सम्यग्दर्शन, वैदिक दर्शन, आत्मदर्शन इत्यादि शब्दों से कहा गया है। इससे अन्य सभी आस्तिक दर्शनों का तात्पर्य इसीमें है अर्थात् अन्य सभी दर्शन वेदान्तद्वारा निर्दिष्ट अद्वैत तत्त्वकी प्रतिपत्ति में ही सहायक हैं । इसलिए सच्चे सुख, सच्ची शान्तिके. जिज्ञासुको उसका ठीक ठीक बोध करानेमें वेदान्तशास्त्र ही समर्थ होता है । क्योंकि वह आत्म-विषयक समस्त विप्रतिपत्तियों का निराकरण करके, जिज्ञासुके हृदयसे अज्ञानको निवृत्त करके, सत्य अपरोक्ष आत्मतत्त्व प्रकाशित कर देता है । आत्माका अपरोक्षज्ञान होनेपर ही यह जीव अनादि जन्म-मरण की परम्परारूप संसार-चक्र से मुक्त होता है । यद्यपि जीव नित्य है, वास्तवमें उसके जन्म-मरण नहीं होते । तथापि वह अपने कर्मों के अनुसार नवीन शरीरोंका ग्रहण और प्राचीन शरीरोंका त्याग करता रहता है । इस शरीर के ग्रहण और त्यागको ही जन्म तथा मरण

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