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40...मुद्रा योग एक अनुसंधान संस्कृति के आलोक में विशिष्ट अंग-विन्यास के रूप में मिलता है। अभिनवगुप्त के अनुसार मुद्रा का प्रयोग साधक के द्वारा काम्य-कर्मों के अन्तर्गत कभी-कभी किया जाना चाहिए तथा यज्ञादि के अन्तर्गत मुद्रा का प्रयोग आरम्भ, मध्य एवं अन्त में किया जाना चाहिए। वैदिक लेखकों ने मद्राओं में खेचरी मुद्रा को प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण मुद्रा माना है। यह सकल रूप में त्रिशलिनी, करंकिणी, क्रोधना, लेलिहा आदि मुद्राओं से संयुक्त होकर अनेक प्रकारों में प्रस्तुत की जाती है।
इसके अनन्तर परवर्ती ग्रन्थों में पृथक्-पृथक् प्रयोजनों को लेकर अनेक मुद्राओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं। कुछ मुद्राएँ स्वरूप आदि की अपेक्षा समान हैं तो कुछेक नाम आदि की अपेक्षा असमान हैं। यदि चर्चित मुद्राओं का गुरुगम पूर्वक अभ्यास किया जाए तो निर्विवादतः साधारण वेशभूषा में दिखाई देता व्यक्ति ब्रह्मज्ञानी हो सकता है, चरमज्ञान की अवस्था प्राप्त कर सकता है। वह देह में रहते हुए भी विदेही सुख, संसार में रहते हुए भी मोक्ष सुख, सम्बन्धों के बीच रहते हुए भी स्वतन्त्र आत्म सुख का आस्वादन कर सकता है।
मध्ययुग में यह वर्णन उपनिषदों एवं संहिताओं में देखने को मिलता है। घेरण्डसंहिता में पच्चीस मुद्राओं का निर्देश किया गया है। इसमें वर्णित मुद्राएँ हठयोग से सम्बन्ध रखती है तथा शरीर के प्रमुख अंगोपांगों से प्रयुक्त की जाती है। इन मुद्राओं का सम्बन्ध केवल हाथों से ही नहीं है, अपितु भिन्न-भिन्न अंगों से भी है। कहा जाता है कि इन मुद्राओं को विशिष्ट साधक या योगीजन ही साध सकते हैं साधारण पुरुष के लिए उपयोगी नहीं है, किन्तु यह भी हकीकत है कि एक साधारण पुरुष ही अपने सम्यक् पुरुषार्थ के बल पर असाधारण स्थिति का निर्माण करता है इसलिए कोई भी साधक इन मुद्राओं को साधने का प्रयत्न कर सकता है और करना भी चाहिए। गोरक्षसंहिता में पाँच मद्राओं का वर्णन है। शिवसंहिता में मुद्राओं की दस संख्या बताते हुए उन्हें क्रमश: उत्तमोत्तम कहा है। इसी क्रम में हठयोग प्रदीपिका में दस मुद्राओं का विस्तृत विवेचन किया गया है।
अर्वाचीन युग की अपेक्षा विचार किया जाए तो इस युग में रोगोपचार एवं आत्मोपचार से संबंधित अनेक मुद्राएँ दृष्टिगत होती है। इन मुद्राओं के विषय में परम्परा भेद नहींवत देखा जाता है। सामान्य तौर पर मुद्राओं का सर्वप्रथम उल्लेख भरत के नाट्यशास्त्र में प्राप्त होता है। इस शास्त्र में मुद्राओं का प्रयोग विशिष्ट भावों को सम्प्रेषित करने के उद्देश्य से किया गया है, न कि किसी प्रयोजन विशेष को लेकर।