Book Title: Mudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 151
________________ उपसंहार ...85 की सात्त्विक परम्परा में घृत से संयुक्त भुने हुए अन्न को भी मुद्रा कहा गया है यह मुद्रा का तीसरा अर्थ है। वाममार्गी तान्त्रिकों की दृष्टि से मुद्रा का अर्थ वह नारी है जिससे तान्त्रिक योगी अपने को सम्बन्धित करता है- यह मुद्रा का चौथा अर्थ है। पंचमकारों में मुद्रा इसी अर्थ में ग्रहीत है किन्तु जैनों को मुद्रा का यह अर्थ कभी भी मान्य नहीं रहा है वह तो मुद्रा के उपरोक्त दूसरे अर्थ को ही स्वीकार करती है। ____ अभिधानराजेन्द्रकोश में हाथ आदि अंगों के विन्यास विशेष को मुद्रा कहा गया है और उसके अन्तर्गत निम्न तीन मुद्राओं के नामों का उल्लेख किया है 1. योग मुद्रा 2. जिन मुद्रा और 3. मुक्ताशुक्ति मुद्रा। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में देववन्दना, ध्यान या सामायिक करते समय मुख एवं शरीर के विभिन्न अंगों की जो आकृतियाँ बनाई जाती है उसे मुद्रा कहा गया है। इस तरह हम देखते हैं कि मुद्रा शब्द विविध अर्थों का बोध कराता है। यहाँ मुद्रा से अभिप्राय प्रसन्नता, अन्तर अभिव्यक्ति, अंगों का विन्यास विशेष, सदनुष्ठान में निमित्त भूत शरीर के विभिन्न अंगों की आकृतियाँ आदि है। मुद्रा के उपरोक्त अर्थ ही उपासना आदि में कार्यकारी होते हैं तथा इन्हीं भावों से किया गया मुद्रा प्रयोग मुद्रा साधना की संज्ञा को प्राप्त होता है। यहाँ यह प्रश्न सहज उठता है कि हमारे जीवन में मुद्रायोग की आवश्यकता क्यों? आपने ध्यानपूर्वक पढ़ा होगा कि मुद्रा, पराविद्याओं की एक महत्त्वपूर्ण विद्या है। इस विद्या की खोज भारतीय ऋषि-महर्षियों ने की है। दूसरा मानव शरीर प्रकृति की सर्वोत्तम एवं महत्त्वपूर्ण कृति है। इस शरीर रूपी भवन में समग्र सुविधाएँ उपलब्ध हैं। इसमें कूलर, हीटर, एयरकंडीशन से लेकर विद्युत, रेडियो, केमरा, कम्प्यूटर आदि सर्व शक्तियाँ व्याप्त है। भारतीय योगियों ने संपूर्ण शरीर का सूक्ष्म अन्वेषण कर मानव देह के कितने ही रहस्यों को प्रकट किया है। सामान्य मान्यतानुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एवं हमारा शरीर पंच तत्त्वों के संयोग से निर्मित है। आधुनिक रसायन विज्ञान ने यद्यपि इन तत्वों को 106 से भी अधिक तत्त्वों में विभाजित कर दिया है किन्तु मुख्यत: पाँच ही हैं। इन पाँच तत्त्वों की विकृति के कारण ही बाह्य प्रकृति में उपद्रव और शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। जब मानव शरीर में पांच तत्त्वों की स्थिति सम रहती है तो शरीर स्वस्थ रहता है किन्तु जब तात्त्विक स्थिति विषम हो जाती है तो हम

Loading...

Page Navigation
1 ... 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164