Book Title: Medta se Vijay Jinendrasuri ko Virampur Preshit Sachitra Vignapati Patra Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_ View full book textPage 7
________________ मेड़तासे विजयजिनेन्द्रसूरिको वीरमपुर प्रेषित सचित्र विज्ञप्तिपत्र: ५५ दूहा उद्देशा वर्गे कह्या, चोथे चम्मालीस । धर्मनाथ निज देहना, धनुषह पैतालीस ॥१८॥ बंभी लिपीना जाणीयै, अक्षर छयालीस । अग्निभूत ग्रह में वस्या, वर्षजु सैंतालीस ॥ १९ ।। चौदमा धर्म जीणंदना, गणधर अडतालीस।। तेरेन्द्रीना भाऊषो, धनु गुण पचास जगीस ॥२०॥ देह अनंत जिणंदनो, धनुष भलो पचास । उद्देशा इक्कावना, नव ब्रह्मचर्यना भास ॥२१॥ मोहनी कर्मतणा कह्या, सूत्र भला बावन्न । पंच अनुत्तर ऊपना, वीर सीस तेपन्न ॥ २२॥ ढाल (३) पाडोसणरी देसी। एतो नेम जिणंद छद्मस्ते हो योगीश्वर दिन चौपन्ने हो (२) विचर्या महीयल मुदा । एतो वीरजिणंद अंतकाले हो जो कह्या अज्झयण हो (२) पचावन शुद्ध उदा ॥ २३ ॥ एतो विमलजिणंदना जाणो हो जो० गणधर शुद्ध हो (२) छप्पन गुणमणि धरा। त्रिण गणि पिटक विमल कर जाणो हो जो० कह्या अज्झयण हो (२) सत्तावन शुभवरा ॥२४॥ एतो ज्ञानावरणी ने वेदनी हो जो आयु नाम जाणो हो (२) अंतराय सुद्ध लहो। उत्तर प्रकृति पांचनी जाणो हो जो० अठावन मानो हो (२) शास्त्रै सुधै वहो ॥ २५ ॥ इकरित चंद्र संवत्सर जाणो हो जो गुणसठि लहिये हो (२) निसिमान में सदा। एतो विमल जिणंद तो जाणो हो जो० साठधनु कहिये हो (२) देह मान समें मुदा ॥ २६ ॥ चंद्रमंडल इगसठ जाणो हो जो० भागें भजियें हो (२)लहियो सुभ ध्यानथी। वलि शांति जिणंदना जाणो हो जो० बासठि सहस्र हो (२) मुनिवर शुभ मानथी ॥२७॥ एतो निषध नीलगिरि ब्रेसठे ही जो० करत प्रकाशा हो (२) उद्योत जिणंदजी। एतो चक्रवर्ती गलामें पहिरे हो जो चोसठि सरिया (२)सुधहार सुं ऐंदजी ॥२८॥ एतो जंबूद्वीप में जाणो हो जो० रवि पणसठै हो (२) मंडल कर जोतिना। दक्षिण मानुषगिरमें जाणो हो जो० चंद्र तपंता हो (२) छासठि सुध सोतना ॥२९॥ श्री प्रयोग जिन), गणधर सतसठ जाण) धातकी खंड जिणंदना, अडसठ कझा वखाण ॥१॥ सात करम उत्तर प्रकृत, गुणहोत्तर विण मोह। सित्तर धणु उंचापणु, वासुपूज्य तनु सोह ॥२॥ इकोतर पूरब सहस, अजित वस्या गृहवास । कला बहोत्तर जाणीये, विद्या लील विलास ॥३॥ विजय बलदेव तो आउषो, सहस तिहोत्तर वर्ष । अग्निभूत गणधर तj, आयु चहोत्तर वर्ष ॥ ४ ॥ पंच्योत्तर से केवली, पुष्पदंतना जाण । लक्ष छिहोत्तर पूर्वथी, भरत थयो महराण ॥ ५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17