Book Title: Medta se Vijay Jinendrasuri ko Virampur Preshit Sachitra Vignapati Patra
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_
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६० : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ
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धर्मपुरंवर मेरु तणी परे, महिमा जगविख्यात । स० ।
पटविध जीव निकाचित रूपना, मात तात ने भ्रात | स० ॥ ग० ॥ ११ ॥ सत्रु मित्र सम चित धरता सुखे कृपा समुद्र पवित्र । स० ।
गंगा जलपरि निर्मल तुम गुणा, जेहना सरस चरित्र । स० । ग० ॥ १२ ॥ प्रवचन सार उद्धार प्रकरणे, आचार्य गुण छत्तीस । स० ।
विविध प्रकारे भांगा वर्णव्या, गणी न सकुं मुनीस । स० । ग० ॥ १३ ॥ जिम गयणांगण तारा नवि गिण सके, तुम गुण कहिया न जाय। स० । पति सहस प्रसंसा जो करै, तिथी पिण न कहाय । स० । ग० ॥ १४ ॥ उज्जल विधुमंडलस्युं तेजनो, स्युं डंडीरव मान स० । परिमल उज्जल गुण धिक्य है, स्युं कहुं वधतेत्रान । स० । ग० ॥ १५ ॥ गिरवा पुरुष ते सहजै गुण करे, कार्य में कारण जाण । स० ग० ॥ १६ ॥
तरु सींचे सरोवर सुभ भरे, मेघ न मांगे दाण । स० ग० ॥ १६ ॥
हीयड़ा में किम साजन वीसरे, ते सज्जन सुविचार | स० ।
दिन दिन घड़ी घड़ी पल पल सांभरे, जिम कोइल सहकार | स० । ग० ॥ १७ ॥
तपगच्छ मंडण हीर दिवाकरू तेहना वंस में भाण । स० ।
पंडित गुलाल विजय कविरायनो, दीपक गाया जाण । स० | ग० ॥ १८ ॥
ढाल (३) म्हांरा वाला वाहण जोतो रे पगडानो तारो ऊगीयो-ए देशी।
श्रीजी सकल मन चाहता, संघ तो चित्त मांहे जी।
भावोजी आस्या पूरीयै, भविपंकज विकसाहे जी ॥ सद्गुरुराय पधारिये ॥ १ ॥ आतम तुमने ओलगु, लक्षणचेतन जाणो जी
चेतनता तो जेल है, पामी सद्गुरु वाणो जी ॥ २ ॥
आतम असंल प्रदेश है, लोकाकाशे तेही जी ।
आतम आतम ए प्रमा न्यूनादिक नहीं सेहो जी ॥ स० ॥ ३ ॥
एक प्रदेशना देश में, गुण कहीजे अनंत जी ।
परजय शक्ति अनंतता, परिजय धर्म अनंत जी ॥ स० ॥ ४ ॥ एद स्वभावज जीवनो, अस्तै नास्तियंतो जी।
सत्वी स्वभात्रै अस्तिता, नास्ति परव प्रपंच जी ॥ स० ॥ ५ ॥ रुचक प्रदेश बिना कहूं, वर्गणा अनंत मानो जी ।
कर्म रज वीटी रह्यो, जिम रज बादल भानो जी ॥ स० ॥ ६ ॥ अनंत चतुष्टी संपदा, अनंत शक्ती जाणो जी ।
चरण भनंता ते कह्या, चीरज अनंतइ मांनो जी ॥ स० ॥ ७ ॥ अजर अमरपद राजवी, निश्रय ने मत जाणो जी।
विहारे संसारियो, एम आतम ए वानो जी ॥ स० ॥ ८ ॥ वीर पटोधर कही जता, जाणो सद्गुर राया जी । तुम वाणी श्रवणे सुणां, रुचसी मन में राया जी ॥ स० ॥ ९ ॥ रुचते दशविध जाणिये, कही पन्नत्रणा माहै जी ।
उपदेश बीजी संपदा भविजन तुमची चाहे जी ॥ स० ॥ १० ॥
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