Book Title: Medta se Vijay Jinendrasuri ko Virampur Preshit Sachitra Vignapati Patra
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_
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मेड़ताले विजयजिनेन्द्रसूरिको वीरमपुर प्रेषित सचित्र विज्ञतिपत्र : ५९
राज तिहां सबलो अछै रे, मानसिंघ महाराज । नगरलोक सुखीया वसै रे, दिन दिन चढत दिवाज रे॥सु०॥ जा० ॥ ७ ॥ तेहनो हाकम गुणनिलो रे, पंचोली गोपालदास । राजधुरा धर धारणो रे, कीरत पसरी जास रे। सु०॥ जा०॥८॥ बहु व्यापारी तिहा वसै रे, लखपति अधिकै मांन । चोर चरड नवि संचरै रे, गोरी गावै गान रे ॥ सु०॥ जा० ॥९॥ वाड़ी पारसनाथ जी रे, पालकोट उदंत । देरागी वेव चार सुं रे, बाहिर नगर सुहंत रे॥सु०॥ जा०॥१०॥ दरजी पटवा सुंदरु रे, तंबोली सोनार। गणिका मोची तुरकड़ा रे, इत्यादिक सुविचार रे॥ सु०॥ जा०॥ ११ ॥ एहवो उपाश्रय किंहा नहीं रे, पूज पधारो वेग। धर्मवृक्ष फल लागसी रे, टलसी सगल उदेग रे ॥ सु० ॥ जा० ॥१२॥ गुलालविजय कविरायनो रे, दीपविजै कहै ताम । वंदणा माहरी मांनज्यो रे, थे छो गुण ना धाम ॥ सु०॥ जा०॥ १३॥
ढाल (२) डोरी मांरी आवै रे रसिया कडतळे,-ए देसी ॥ सदगुरु साचो रे जगमें सुरतरु, जपीयै निसदिन जाप । सनेही। रन रो भीनो गच्छ रो लाडलो, जिम इंद्र ओछक चाप । स०॥१॥ गच्छपति विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरू॥ अविचल महिमा रे जगमें अधिपति, गणधर हंदो रे ज्ञान । स०। गणधर घट जपतां सूरज उदें, भांजत तिमर अग्यांन । स०।ग०॥ २ ॥ जग में क्रोध मान माया वली, लोभ मिथ्यात्व प्रचंड । स०। रागद्वेष अंतर रिपु जीतीया, दुर्द्धर दियै सिर दंढ । स० । ग०॥३॥ तेजवंता जयवंता जस मुखी, नाणवंत जसवंत । स०। लब्धि भंडारी लाभ कला भर्या, प्रणम्यति सघला संत ॥ स० ॥ ग०॥ ४ ॥ चंद्रमंडलपरि शीतल परदरा भास्कर सम वड़ तेज । स०॥ शुद्ध मारगना पालक शुभकरा, भविजनथी बहु हेज । स० । ज० ॥५॥ जाति रूप कुल बल वपु उत्तमा, विनय सुनाण संपन्न । स०। दंसणचारित्र अवर क्षमा दया, सत्य सौच्च उपन्न ॥ स० ॥ ग० ॥ ६ ॥ चरण करण आर्जव माईवा, बंभचेरई सुविचार । स०। भाकिंचण निर्लोभी तारण तरा, इत्यादिक गुण सार । स०।ग० ॥७॥ काव्य पुराण व्याकरण छंदना, टीकाशास्त्र अभ्यास । स०। आगम नय उपनय गांभीर्यता, जुक्ता जुक्त निवास । स० ग०॥८॥ तर्कशास्त्र निरजुक्ति स्वपर तणा, उत्सर्ग ने अपवाद । स०। निश्चयनय व्यवहार सदामती, जाणक सगला जाद । साग०॥९॥ निर्दाटक पाखंडी छेदता, पंच मिथ्यात्व निवार। स०। कुमति कदाग्रह तृष्णा छेदता, जिम वन छेद कुठार । स०।ग० ॥१०॥
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