Book Title: Matruka Sholakmala
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 4
________________ १०४ अनुसंधान-२६ कर विद्वानों के बुद्धि रूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य के समान और काव्य-कला में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करने के लिए मातृका-श्लोकमाला रचना की प्रतिज्ञा की है। दूसरे पद्य में कहा गया है कि प्रथम परिच्छेद में २४ तीर्थंकरो का वर्णन करूंगा और दूसरे परिच्छेद में भिन्नभिन्न पदार्थों का वर्णन करूगा । तीसरे पद्य में अकार में अर्हत जिनेश्वर का वर्णन कर पद्य ४ से २७ तक आकार से लेकर झ व्यंजन तक भगवान् आदिनाथ से प्रारम्भ कर भगवान् महावीर पर्यन्त २४ जिनेश्वरों का वर्णन किया गया है। दूसरे परिच्छेद में अ से प्रारम्भ कर ह ल्ल और क्ष व्यंजनाक्षर का प्रयोग करते हुए २६ पद्यों में विष्णु, शिव, ब्रह्मा, कार्तिकेय, गणेश, सूर्य, चन्द्र, दिग्पाल, इन्द्र, शेष-शायी विष्णु, मुनिपति, राम, लक्ष्मण, समुद्र, जिनेश्वर एवं तीर्थंकर आदि को लक्ष्य बना कर रचना की गई है । इस कृति का यह वैशिष्ट्य है कि प्रत्येक पद्य के चारों चरणों में प्रथमाक्षर में उसी स्वर अथवा व्यंजन का प्रयोग अलंकारिक भाषा में किया गया है। कवि ने व्यंजनाक्षरों में त्र और ज्ञ का प्रयोग नहीं किया है। इसके स्थान पर ल्ल और क्ष का प्रयोग किया है। यह ळ डिंगल का या मराठी का है अथवा अन्य किसी का वाचक है, निर्णय अपेक्षित है । छन्दःकौशल : इस लघु कृति में विविध छन्दों का प्रयोग करने से यह स्पष्ट है कि कवि का छन्दःशास्त्र पर भी पूर्ण अधिकार था । इस कृति में निम्न छन्दों का प्रयोग हुआ है : प्रथम परिच्छेद : शार्दूलविक्रीडित १, अनुष्टुप् २, उपेन्द्रवज्रा ३, ४, ७, ९, इन्द्रवज्रा ४, ६, ८, १०, १२, १३, १४, १५, १६, २४, २५, २७, मालिनी ११, २१, दोधक १७, १८, २३, सुन्दरी (हरिणप्लुता) १९, २०, २६, स्वागता २२ । द्वितीय परिच्छेद : उपेन्द्रवज्रा १, ३, ६, १७, २३, इन्द्रवज्रा २, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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