Book Title: Matruka Prakaranam
Author(s): 
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 37
________________ न वज्रजेयाऽसि वरीढका (२६५) इहयां (?), भ-वनाभिमाहुर्मुनिलक्ष्यलक्षणा(ण)म् ॥२६६।। अनीदृशं मो रसमिद्धमेधसः । ___ यामिति गम्यम् ॥२६७|| न तत्र चित्रं यदि यादि धातुमत् त्वदङ्गमुच्चावचविश्वबीजवत् । य र ल व श ष सा रा(र) साऽसृग्मांस-मेदो-ऽस्थि-मज्ज(ज्जा)शुक्राणि ।।२६८॥ हकार सुश्वासिनि धर्मधीमतां भवत्प्रसादाद् भृशमायुरेधताम् ॥२६९।। नमो भवत्यै भुवि जीवतालमे(?)ऽनवद्यविद्या मम देव्युदीयताम् ॥२७०॥ क्ष इत्यकर्माणमुपैषि पर्ययं क्रियाद् द्रुतं दारुणदुर्गतिक्षयम् ॥ अतः - अ आ इ ई उ ऊ ऋऋ ल ल ए ऐ ओ औ, अं अः । क ख गघ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह लं क्षः ॥२७१॥ अर्हन्तोऽजा अथाचार्या उपाध्याया मुनीश्वराः । मिलित्वा यत्र राजन्ते तदोंकार पदं मुदे । अ अ आ उ म् ॥२७२।। बीज-मूल-शिखा कात्स्य॑-मेकक-त्रि-त्रि-पञ्चभिः । अक्षरैरोंनमः सिद्धं जपानन्तफलैः क्रमात् ।। १ नमः २ सिद्धं । । इत्यनुवर्तते ।। नन्ता हन्त भवत्येको भवत्येकश्च शंसिता । शंसिता लभते कामान् नन्ता लभति वा न वा ॥३॥ नमः सिद्धम् ॥२७३।। हुमर्हद्धरणाचार्यो-पाध्यायमुनिगोचरम् । ह र उ उ म् ॥२७४।। सूर्युपाध्यायमुनयः स्पृशन्त्यूंकारमादरात् ॥ उ उम् ॥२७५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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