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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार
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प्रश्नकर्ता: अपने हाथ में कहाँ है? अपने हाथ में नहीं है न, अमरिकन पत्नी आयेगी या नहीं?
दादाश्री : हाथ में नहीं, फिर भी ऐसे अनदेखी थोड़े कर सकते हैं? कहना तो पड़ेगा न, 'एय! उस अमरिकन लड़की के साथ तुम मत घूमना ! अपना काम नहीं है।' ऐसे कहते रहें तब अपने आप ही असर होगा। वर्ना वह समझेगा कि इसके साथ घूमते हैं, वैसे ही उसके साथ भी घूमें। कहने में क्या हर्ज है? यदि मुहल्ला खराब हो, तब वहाँ बोर्ड लगाते है, 'बिवेअर ऑफ थीव्स' (चोरों से सावधान ) ऐसा क्यों करते हैं? कि जिन्हें संभलना हो वह संभले । ये शब्द, काम आते हैं कि नहीं आते?
पितृपक्ष कुल कहलाता है और मातृ पक्ष को जाति कहते हैं। जाति कुल का मिश्रण हो तो संस्कार आते हैं। अकेली जाति हो और कुल नहीं हो तब भी संस्कार नहीं होते। अकेला कुल हो, जाति नहीं हो तब भी संस्कार नहीं होते। जाति और कुल दोनों का मिश्रण, एक्ज़ेक्टनेस हो तभी संस्कारी लोग जन्मते हैं। ये दोनों पक्ष अच्छे जमा हुए हों तो बात आगे बढ़ाना, दूसरी बातों में मज़ा नहीं है।
अतः माता जातिवान होनी चाहिए और पिता कुलवान होना चाहिए। उनकी संतान बहुत उम्दा होगी। जाति में विपरीत गुण नहीं होते और पिता में कुलवान प्रजा के गुण होते हैं। कुल के ठाठ सहित दूसरों के लिए घिस जाते हैं। लोगों के लिए घिस जाते हैं, बहुत ऊँचा कुलवान कौन ? दोनों ओर से नुकसान सहन करे। आते समय भी खर्च करे और जाते समय भी खर्च करे। वरना संसार के लोग कैसे कुलवान कहलाएँ ? लेते समय पूरा लें पर देते समय थोड़ा ज़्यादा दें, तोलाभर ज्यादा दें। लोग चालीस तोले दें, लेकिन खुद इकतालीस तोले दें। डबल कुलवान कौन ? खुद उनतालीस तोले लें, एक तोलाभर वहाँ कम लें और देते समय एक तोलाभर ज़्यादा दें, वह डबल कुलवान कहलाते हैं। दोनों तरफ से नुकसान उठायें अर्थात् वहाँ पर कम क्यों लेते हैं? वह उनकी जातिवाला दुःखी है, उसका दुःख दूर करने के लिए! यहाँ भी भाव, वहाँ भी भाव। मैं ऐसे लोगों को देखता तब क्या कहता था, ये द्वापर युगी आये।
माता-पिता और बच्चों का व्यवहार
अब उच्च कुल हो और कुल का अहंकार करे, तो दूसरी बार उसे निम्न कुल मिलता है और नम्रता रखें तो उच्च कुल में जाता हैं। यह अपनी ही शिक्षा है, अपनी ही फसल है। वे गुण हमें प्राप्त नहीं करने पड़ते, सहज ही प्राप्त होते हैं। वहाँ उच्च कुल में जन्म होने पर, हमें जन्म से ही सभी अच्छे संस्कार प्राप्त होते हैं।
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ये सभी व्यवहार में काम की बातें हैं, ये ज्ञान की बातें नहीं हैं। व्यवहार में चाहिए न !
प्रश्नकर्ता: दादाजी, आपने ठीक कहा है। ज्ञान की चोटी तक पहुँचने तक हम व्यवहार में हैं, तो व्यवहार में ये ज्ञान की बातें भी काम में आती हैं न?
दादाश्री : हाँ, काम में आती हैं न! व्यवहार भी अच्छा चलता है। 'ज्ञानीपुरुष' में विशेषता होती है। 'ज्ञानीपुरुष' के पास बोधकला और ज्ञानकला दोनों कलाएँ होती हैं। बोधकला सूझ से उत्पन्न हुई है और ज्ञानकला ज्ञान से उत्पन्न हुई है इसलिए वहाँ (ज्ञानीपुरुष के पास) पर हमारा निराकरण आ जाता है। किसी दिन ऐसी बातचीत की हो तो उसमें क्या हर्ज ? इसमें हमारा क्या नुकसान है? 'दादा' भी बैठे होते हैं, उनकी कोई फीस नहीं होती। फ़ीस हो तो हर्ज हो ।
प्रश्नकर्ता : युवक और युवतियाँ विवाहित जीवन में प्रवेश करने से पहले स्त्री अथवा पुरुष की पसंद किस प्रकार करें और क्या करें? क्या देखें? गुण किस प्रकार देखें?
दादाश्री : वह ज़्यादा देखने की जरूरत नहीं हैं। युवक-युवतियाँ शादी के वक्त देखने जाएँ और आकर्षण नहीं हो तो बंद रखना । दूसरी बातें देखने की जरूरत नहीं है। आकर्षण होता है या नहीं, इतना ही देखना ।
प्रश्नकर्ता: किस प्रकार का आकर्षण ?
दादाश्री इन आंखों का आकर्षण होता है, भीतर आकर्षण होता है। बाज़ार में तुम्हें कोई चीज़ खरीदनी हो, तब उस चीज़ का एट्रेक्शन (आकर्षण) नहीं हो तो तुम खरीद नहीं सकते। अर्थात् उसका हिसाब