Book Title: Mantri Karmachand Vanshavali Prabandh
Author(s): Jinvijay
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan
View full book text
________________
श्रीकर म चंद मं त्रि-वंश प्र.ब.न्ध । जु कछु भयउ तुह्म खेद, आवत पंथमंही री । दूर करूंगउ तेह, तुह्मपइ नियम गही री ॥ अन्य० ॥
२२४ हमसेती हर रोज, धरमकथा कहीयइ री । अइसी कहउ कछु द्वाइ, राखी रहम हीयइ री ॥ अन्य० ॥ २२५ जइसी कृपा तुझ चित्ति, संततिकइ भी तिसी री । थाअउ धरम प्रमाणि, दउलति धरि विलसी री ॥ अन्य०॥ २२६ साहिहुकमि निज ठामि, आए सुगुरू भलइ री। मंत्रीसरकुं पूछि, डाहां मति न डुलइ री ॥ अन्य०॥ २२७ परबतसाह प्रवेश, उच्छवि दान दियइ री । खरची बहुलउ द्रव्य, जगमइ सुजस लियइ री ॥ अन्य०॥ २२८
॥ ढाल १०, लाल मन मोहयउ रे-गउडी रागे ॥ श्रीजिनचंद्रने अकबरे फरमान आप्यु ।
बडे गुरु साहिइ काउ, गुरू सोहइ रे ॥ गुरू सोहइ रे बिरुद हूअउ विख्यात, साधु गुरु सोहइ रे । साहिनइ आग्रहि तिहां रह्या गुरू० २ वरिषावासइ सुहात साधु० ॥ द्वारावती देहरां तणउ गुरू० २ सांभलि बहुत विनास साधु० । रक्षा कारणि वीनव्यउ गुरू० २ बोलइ साहि उल्हासि साधु०॥ शत्रुजय आदिक जिके गुरू० २ तीरथ जेह उदार साधु० । तुझकुं मइ बक्स्ये सवे गुरू० २ करिवी तिणकी सार साधु० ॥ आजमखानकुं भेजियउं गुरू० २ सवि तीरथ फरमान साधु० । बक्से तीरथ मंत्रिकुं गुरू. २ इनकउ करि खसम्यान साधु० ॥ कासमीरकुं चालतां गुरू० २ बइठे साहि जिहांजी साधु०। समरी गुरू बोलाइया गुरू० २ जाणि धरमकउ काज साधु० ॥
२३४ मंत्रीसरसुं गुरू तिहां गुरू० २ पहुंते श्रीदरबारि साधु० । आसाढ सुदि नवमीथकी गुरू २ सात दिवसकी अमारि साधु०॥
२३५ दीनी मइ तुम्हकुं इहां गुरू० २ इगारह सुबामांहि साधु० । लिखि फरमान पठाविया गुरू० २ पालावई सवि पाहि साधु० ॥ हुकम सुणी राजा सवे गुरू० २ साहि खुसीकइ हेति साधु० । मास बि मास अधिक दीयइ गुरू० २ फलियउ पुण्यनउ खेत साधु० ॥ श्रीजी मंत्रीनइ भणइ गुरू० २ भेजि गुरु लाहोरि साधु० । हमसेती मानसिंहकुं गुरू० २ भेजउ हमहं निहोरि साधु० ॥ मानि हुकम मानसिंहजी गुरू० २ चाले डूंगर लेइ साधु० । मंत्रीसरि साहिज दीयउ गुरू० २ साथि पंचायण देइ साधु० ॥ साधु-विहारइ विहरतां गुरू० २ सहइ परीसह सूर साधु० । गिरि कसमीरि पधारिया गुरू० २ भए श्रीजीकइ हजूर साधु०॥
२४०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122