Book Title: Manav Bhojya Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 9
________________ [घ ] १. प्रथम अध्याय में मनुष्य जाति का भोज्य पदार्थ क्या होना चाहिए, इसकी विस्तृत विचारणा में जैन आगमों, वैदिक सिद्धान्तों और वैज्ञानिक विद्वानों के अभिप्रायों के उद्धरण देकर यह सिद्ध किया है कि मनुष्य-जाति सदा से ही निरामिष भोजी रही है, और रहनी चाहिये। २. दूसरे अध्याय में वैदिक यज्ञों की चर्चा की है, ऋग्वेदकालीन यज्ञ हिंसात्मक नहीं होते थे, परन्तु बिचले समय में वैदिक निघण्टु के गुम हो जाने पर वेदों का अर्थ करने में बड़ी गड़बड़ी हुई । कई वनस्पति वाचक शब्दों को पशुवाचक मानकर याज्ञिकब्राह्मण यज्ञों में पशु बलि देने लगे। “यजुर्वेद माध्यन्दिनी संहिता" और “शतपथ ब्राह्मण" उसी समय की कृतियां हैं, जिनमें यज्ञों में पशु बलि देने का विधान मिलता है ! फिर भी आचार्य यास्क को श्री विष्णु की कृपा से “वैदिक निघण्टु" की प्राप्ति हो जाने के बाद यज्ञों में हिंसा की बाढ़ कम हो गई और पशु हिंसा केवल अष्टका-श्राद्ध तथा मधुपर्क में रह गई थी, जो धीरे-धीरे पौराणिक काल तक वह भी अदृश्य हो गई,और उसका स्थान पिष्ट के पक्वान्न और घृत गुड ने लिया, यह बात द्वितीय अध्याय में प्रमाणित की गई है। ३. तीसरे अध्याय में आचारांग, भगवती, निशीथाध्ययन, व्यवहार भाष्य, आवश्यक नियुक्ति आदि जैन सूत्रों में आने वाले "मंस, मच्छ, मृत, पुद्गल, आमिष, प्रणीत आहार शब्द सूत्रकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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