Book Title: Mahavira Vani Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 11
________________ महावीर-वाणी भाग : 1 लेकिन भीतर हम प्रभु से कतराते हैं। ओशो हमारे समकालीन हैं, इसलिए हमें बहुत पीड़ा होती है, हमारे अहंकार को चोट लगती है, यह स्वीकार करने में कि वे भगवत्ता को प्राप्त भगवान-स्वरूप हैं, महावीर के साथ भी तत्कालीन समाज ने ऐसा ही किया था, बहुत कम लोग होंगे तब, जिन्होंने महावीर में समाहित भगवत्ता को पहचाना होगा। प्रत्येक नया धर्म अपने समय में प्रचलित और प्रतिष्ठित धर्म के प्रति विद्रोह होता है, महावीर भी तत्कालीन संस्कृति-ब्राह्मण-संस्कृति के प्रति जीवित विद्रोह थे। ईश्वर के नाम पर पंडितों और पुरोहितों द्वारा समाज का शोषण किया जा रहा था। उन्होंने अपने को परमात्मा के 'एजेंट' के रूप में स्थापित कर रखा था। तत्कालीन प्रशासन भी उनका पोषक था। परिणामतः स्वाभाविक था कि वे महावीर को सहन नहीं करते। इसलिए महावीर को तरह-तरह से सताया गया। उन्हें गांव में नहीं ठहरने दिया जाता। कदाचित, प्रत्येक प्रज्ञापुरुष की यही नियति होती है, वे चाहे जीसस हों, चाहे सुकरात। और आज तो हम अपने युग को बहुत सुसंस्कृत, सुशिक्षित और सभ्य कहते हैं। किंतु क्या यह सही नहीं कि जहां तक चेतना के विकास की बात है, हम आज भी महावीर और जीसस के बर्बर युग में ही रह रहे हैं। अभी हाल में ओशो सरीखे प्रज्ञापुरुष के प्रति तथाकथित महान लोकतांत्रिक देश अमरीका के प्रशासन ने कितना वहशी और क्रूरतम व्यवहार नहीं किया। और, उनका अपराध क्या? यही कि वे सत्य के निर्भीक प्रतिपादक हैं। चाहे अमरीका का राष्ट्रपति रीगन हो, चाहे वैटिकन का पोप और चाहे भारत का भू.पू. प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, ओशो ने उनकी चेतना में जैसी कुरूपता देखी, वैसी व्यक्त कर दी। रीगन-प्रशासन ने तो ओशो की जान तक लेने का प्रयत्न किया, उनके कमरे में टाइम बम रख कर। बिना किसी आरोप के 12 दिन विभिन्न जेलों में कैद रखा। उन्हें जहर तक दिया। पोपों के इशारे पर उन्हें आधे घंटे में इटली छोड़ने को विवश किया गया। इंग्लैंड में हवाई अड्डे पर रात भर विश्राम नहीं करने दिया गया। इन रीगनों, इन पोपों और इन थैचरों का कहना था कि 'ओशो' खतरनाक हैं। एक ओर जहां तथाकथित धार्मिक नेता और राजनेता ओशो को निंदित और अपमानित करने में कोई कोर-कसर नहीं रख रहे, वहीं दूसरी ओर सारे विश्व के सृजनशील लोग, चाहे वे कवि, लेखक हों, चाहे संगीतज्ञ, चाहे नृत्य प्रवीण, सभी ओशो को एक मसीहा के रूप में देखते हैं। अस्तु। महावीर पर अनेक पुस्तकें हैं तथाकथित विद्वानों और पंडितों की लिखी हुई। किंतु वे सभी दूसरी-दूसरी किताबों की जूठन हैं। उनमें न कहीं महावीर का भाव है और न कहीं उनका अर्थ। बल्कि, उनके अर्थों को यदि सही मानें तो महावीर हास्यास्पद लगने लगते हैं। पंडितों के पास महावीर के शब्दों की लाशें हैं, आत्मा नहीं। जहां यह सत्य है कि महावीर के वचन किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं हैं, वहां यह भी एक तथ्य है कि जैनों ने अपने को महावीर से जुड़ा हुआ मान लिया है, जैसे कृष्ण से हिंदुओं ने, जैसे जीसस से ईसाइयों ने; जैसे मोहम्मद से मुसलमानों ने। और, संप्रदाय विशेष के द्वारा जब किसी एक प्रज्ञापुरुष को अपने तक सीमित कर लिया जाता है तो अनायास ही दूसरे संप्रदाय फिर या तो उसे समझने का प्रयत्न ही नहीं करते या फिर गलत समझ लेते हैं। महावीर के साथ भी यह घटित हो रहा है। विश्व में पहली बार ओशो के प्रेमी, उनका जन्म चाहे किसी भी देश या संप्रदाय में हुआ हो, प्रत्येक प्रज्ञापुरुष को ओशो के प्रवचनों एवं प्रकाशनों के माध्यम से समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस प्रकार एक ऐसा नया समाज निर्मित हो रहा है जिसका न कोई राष्ट्र है, न कोई संप्रदाय। उसके लिए सभी प्रज्ञापुरुष उसके हैं। मुझे तरस आता है, विशेषतया तथाकथित बुद्धिजीवियों पर, जो ओशो को पढ़े या सुने बिना उनकी निंदा में रस लेकर, प्रकारांतर से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करते रहते हैं। ओशो को सम्यक रूप से समझने के लिए साहस और चित्त की सरलता आवश्यक है। मेरा निवेदन है जैनों से IX Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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