Book Title: Mahavira Vani Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 10
________________ महावीर-वाणी भाग : 1 वालों को निमंत्रण दे रहा है तो फिर मैं भी जैन साधुओं, तथाकथित जैन विद्वानों, जैन पंडितों को आमंत्रित करता हूं कि वे, सचमुच, यदि वे महावीर के प्रेमी हों और महावीर एवं उनकी वाणी को समझने-हृदयंगम करने की जिज्ञासा उनमें हो तो शास्त्रों को बस्ते में बांध कर रख दें-सदैव के लिए; और, जितनी बार संभव हो, ओशो की 'महावीर-वाणी' 'महावीर : मेरी दृष्टि में' 'जिन-सूत्र' भले ही चोरी-छिपे, पढ़ें और पूर्ववत ओशो की निंदा करने के साथ-साथ उनके द्वारा उदघाटित सत्य को, उनके संदेश को अपने मरणशील नामों के साथ व्यक्त करते रहें, ओशो की ओर से उन्हें आह्वान है। सत्य की बस्ती अजीब बस्ती है। लूटने वालों को तरसती है। ओशो, जो कवियों के कवि, महाकवियों के महाकवि हैं, जो गद्य में पद्य बोलते हैं, ने महावीर को एक ही पंक्ति में परिभाषित कर दिया है: 'जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्यक्तियों में महावीर हैं।' ओशो ने महावीर की अंतश्चेतना की गहराई पर्त दर पर्त जिस प्रकार अपने विभिन्न प्रवचनों में उदघाटित की है, उनकी वाणी अथवा देशनाओं को वर्तमान तर्क-प्रधान युग में विज्ञान सम्मत प्रमाणों के साथ व्याख्यायित किया है, वह अद्वितीय और अप्रतिम है। मैं नहीं समझता कि अतीत में कभी किसी अन्य ने महावीर के वचनों को वह अर्थवत्ता, वह गरिमा एवं महिमा प्रदान की हो जो ओशो से संभव हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि पच्चीस सौ वर्ष पहले आकाश में विलुप्त महावीर की चेतना, उनकी दिव्यात्मा, उनकी तत्कालीन भाव एवं ध्वनि-तरंगों से सीधे संपर्क कर उन्हें एवं उनकी वाणी को अपने इन प्रवचनों के रूप में ओशो ने समग्रता में पुनरुज्जीवित कर दिया है। __ न केवल महावीर की आंतरिकता को ही, बल्कि उनके भीतर जो घटित हुआ तथा उसके फलस्वरूप उनके बाह्याचरण में जो प्रकट हुआ, उसको भी ओशो ने नये आयाम प्रदान किए हैं। 'आचरण बड़ा सूक्ष्म है। अब महावीर का नग्न हो जाना इतना निर्दोष आचरण है, जिसका हिसाब लगाना कठिन है-और, हम सबके आचरण के संबंध में बंधे-बंधाए खयाल हैं। ऐसा करो, और जो ऐसा करने को राजी हो जाते हैं, वे करीब-करीब मुर्दा लोग हैं, जो आपकी मान कर आचरण कर लेते हैं, उन मुर्दो को आप काफी पूजा देते हैं।' 'इस जगत में जिंदा तीर्थंकर का उपयोग नहीं होता। सिर्फ मुर्दा तीर्थंकर के साथ भूलचूक निकालने की सुविधा नहीं रह जाती।' हमने मुर्दा भगवान हमेशा पूजे, जीवित भगवानों को न जान पाते हैं। पत्थर की प्रतिमाओं के सम्मुख झुककर हम अहंकार को शेष बचा लाते हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे-सभी हमारे, ये अवतारों के मरघट बने हुए हैं। ये अपनी नींवों से शिखरों तक सारे पाखंडों के पापों में सने हुए हैं। हमने चमड़ी पर मज़हब ओढ़ लिया है। VII Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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