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है फिर त्रिशलामाता की कुक्षि में आगमन अकल्याणक कैसे हो सकता है ? इसी कल्याणक के चतुर्दश महास्वमादि . उतारने की सारी क्रियाएँ मान्य करते हुए मात्र कल्याणक शब्द, अमान्य करने का हठाग्रह क्यों ? . इस पूजा के निर्माता महोपाध्याय श्री विनयसागरजी म. साहित्याचार्य, दर्शन शास्त्री, साहित्यरत्न और शास्त्रविशारद हैं। आपने तरुणवर्ष में एकनिष्ठ अध्ययन द्वारा परीक्षाएं पास करके ये उपाधियाँ प्राप्त की हैं। श्रापका काव्य निर्माण का यह प्रथम प्रयास है फिर भी प्रसाद गुण युक्त,
आधुनिक तनों में, सुन्दर शब्द योजना द्वारा अपने भक्तजनों को जो प्रसादी दी है। वस्तुत: अभिनदनीय है। श्राप जसे उदीयमान रत्न से हमें बड़ी बड़ी श्राशाएं हैं । शासनदेव से प्रार्थना है कि श्राप दीर्वायु हों और अपनी विद्वत्ता द्वारा जन-चाइमय और राष्ट्र भाषा हिन्दी का भण्डार भर
भंवरलाल नाहटा