Book Title: Mahavir ka Jivan Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 5
________________ ३८ जैन धर्म और दर्शन देवानन्दा मेरी जननी है इसी से मुझे देखकर उसके थन दूध से भर गए हैं और भगवती' में दूसरी जगह देवों की गर्भापहरण-शक्ति लक्षित करके वर्णन किया है पर उस जगह उन्होंने हर्ष- रोमाञ्च हो आए हैं। का महावीर ने इन्द्रभूति को अपने गर्भापहरण का कोई निर्देश तक नहीं किया है। हाँ, महावीर के गर्भापहरण का वर्णन आचारांग के अन्तिम भाग में है पर वह भाग आचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार ही कम से कम महावीर के अनन्तर दो सौ वर्ष के बाद का तो है ही । ऐसी स्थिति में किसी भी समझदार के मन में यह प्रश्न हुए बिना रह नहीं सकता कि जब एक सन्तान की एक ही माता सम्भव है तब जननी रूप से महावीर की दो माताओं का वर्णन शास्त्र में आया कैसे ? और इस असंगत दिखाई देने वाली घटना को संगत बनाने के गर्भ संक्रमण -- जैसे बिल्कुल शक्य कार्य को देव के हस्तक्षेप से शक्य बनाने की कल्पना तक को शास्त्र में स्थान क्यों दिया गया ? इस प्रश्न के और भी उत्तर या खुलासे हो सकते हैं पर मुझे जो खुलासे संभवनीय दिखते हैं उनमें से मुख्य ये हैं १ - महावीर की जननी तो ब्राह्मणी देवानन्दा ही है, क्षत्रिवाणी त्रिशला नहीं । २ - त्रिशला जननी तो नहीं है पर वह भगवान् को गोद लेने वाली या अपने घर पर रख कर संवर्धन करने वाली माता अवश्य है । अगर वास्तव में ऐसा ही हो तो परम्परा में उस बात का विपर्यास क्यों और शास्त्र में अन्यथा बात क्यों लिखी गई ? यह प्रश्न होना स्वा हुआ भाविक है । मैं इस प्रश्न के दो खुलासे सूचित करता हूँ - १- पहिला तो यह कि त्रिशला सिद्धार्थ को अन्यतम पत्नी होगी जिसे अपना कोई औरस पुत्र न था । स्त्रीसुलभ पुत्रवासना की पूर्ति उसने देवानन्दा के औरस पुत्र को अपना बना कर की होगी । महावीर का रूप, शील और स्वभाव ऐसा आकर्षक होना चाहिए कि जिसके कारण त्रिशला ने अपने जीते जी उन्हें उनकी सहज वृत्ति के अनुसार दीक्षा लेने की अनुमति दी न होगी । भगवान् ने भी त्रिशला का अनुसरण करना ही कर्त्तव्य समझा होगा २ -- दूसरा यह भी संभव है कि महावीर छोटी उम्र से ही उस समय ब्राह्मणपरंपरा में अतिरूद्ध हिंसक यज्ञ और दूसरे निरर्थक क्रिया-काण्डों वाले कुलधर्म से विरुद्ध संस्कार वाले - त्याग प्रकृति के थे । उनको छोटी उम्र में ही किसी निर्ग्रन्थ I १. भगवती शतक ५ उद्देश ४ १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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