Book Title: Mahavir ka Jivan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 6
________________ 7 भगवान् महावीर का जीवन દ परम्परा के त्यागी भिक्षु के संसर्ग में आने का मौका मिला होगा और उस निर्ग्रन्थ संस्कार से साहजिक त्यागवृत्ति की पुष्टि हुई होगी । महावीर के त्यागाभिमुख संस्कार, होनहार के योग्य शुभ लक्षण और निर्भयता आदि गुण देखकर उस निर्ग्रन्थ गुरु ने अपने पक्के अनुयायी सिद्धार्थ और त्रिशला के यहाँ उनको संवर्धन के लिए रखा होगा जैसा कि श्राचार्य हेमचन्द्र को छोटी उम्र से ही गुरु देवचन्द्र ने अपने भक्त उदयन मन्त्री के यहाँ संवर्धन के लिए रखा था । महावीर के सद्गुणों से त्रिशला इतनी आकृष्ट हुई होगी कि उसने अपना ही पुत्र मानकर उनका संवर्धन किया । महावीर भी त्रिशला के सद्भाव और प्रेम के इतने अधिक कायल होंगे कि वे उसे अपनी माता ही समऔर कहते थे । यह संबन्ध ऐसा पनपा कि त्रिशला ने महावीर के त्यागसंस्कार की पुष्टि की पर उन्हें अपने जीते जी निर्ग्रन्थ बनने की अनुमति न दी । भगवान् ने भी माता की इच्छा का अनुसरण किया होगा । खुलासा कोई भी हो - हर हालत में महावीर, त्रिशला और देवानन्दा अपना पारस्परिक संबन्ध तो जानते ही थे । कुछ दूसरे लोग भी इस जानकारी से वंचित न थे । श्रागे जाकर जब महावीर उग्र-साधना के द्वारा महापुरुष बने तत्र त्रिशला का स्वर्गवास हो चुका था । महावीर स्वयं सत्यवादी सन्त थे इसलिए प्रसंग आने पर मूल बात को नहीं जाननेवाले अपने शिष्यों को अपनी असली माता कौन है इसका हाल बतला दिया । हाल बतलाने का निमित्त इसलिए उपस्थित हुआ होगा कि अब भगवान् एक मामूली व्यक्ति न रहकर बड़े भारी धर्मसंघ के मुखिया बन गए थे और आसपास के लोगों में बहुतायत से यही बात प्रसिद्ध थी कि महावीर तो त्रिशलापुत्र हैं । जब इने-गिने लोग कहते थे कि नहीं, महावीर तो देवानन्दा ब्राह्मणी के पुत्र हैं । यह विरोधी चर्चा जब भगवान् के कानों तक पहुँची तब उन्होंने सच्ची बात कह दी कि मैं तो देवानन्दा का पुत्र हूँ । भगवान् का यही कथन भगवती के नवम शतक में सुरक्षित हैं । और त्रिशलापुत्र रूप से उनकी जो लोकप्रसिद्धि थी वह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में सुरक्षित है । उस समय तो विरोध का समाधान भी ठीक-ठीक हो गया- दोनों प्रचलित बातें परम्परा में सुरक्षित रहीं और एक बात एक आगम में तो दूसरी दूसरे आगम में निर्दिष्ट भी हुई। महावीर के निर्वाण के बाद सौ चार सौ वर्ष में जब साधु-संघ में एक या दूसरे कारण से अनेक मतान्तर और पक्षभेद हुए तब श्रागम-प्रामाण्य का प्रश्न उपस्थित हुआ । जिसने आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को तो पूरा प्रमाण मान लिया पर दूसरे आगमों के बारे में संशय उपस्थित किया, उस परम्परा में तो भगवान् की एक मात्र त्रिशलापुत्र रूप से प्रसिद्धि रह गई और श्रागे जाकर उसने देवानन्दा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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