Book Title: Mahavir ka Jivan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 14
________________ भगवान् महावीर का जीवन १ वर्णित घटना की ऐतिहासिकता साबित हो जाती है। महावीर खुद नग्न अचेल थे फिर भी परिमित व जीर्ण वस्त्र रखनेवाले साधुत्रों को अपने संघ में स्थान देते थे ऐसा जो वर्णन आचारांग उत्तराध्ययन में है उसकी ऐतिहासिकता भी बौद्ध ग्रन्थों से साबित हो जाती है क्योंकि बौद्ध ग्रन्थों में अचेल और एकसाटकघर श्रमणों का जो वर्णन है वह महावीर के अचेल और सचेल साधुत्रों को लागू होता है। जैन आगमों में महावीर का कुल ज्ञात कहा गया है, बौद्ध पिटकों में भी उनका वही कुल निर्दिष्ट है । महावीर के नाम के साथ निर्ग्रन्थ विशेषण बौद्ध ग्रन्थों में आता है जो जैन वर्णन की सच्चाई को साबित करता है | श्रेणिककोणिकादि राजे महावीर को मानते थे या उनका आदर करते थे ऐसा जैनागम में जो वर्णन है वह बौद्ध पिटकों के वर्णन से भी खरा उतरता है । महावीर के व्यक्तित्व का सूचक दीर्घतपस्याका वर्णन जैनागमों में है उसकी ऐतिहासिकता भी बौद्ध ग्रन्थों से साबित होती है। क्योंकि भगवान् महावीर के शिष्यों का दीर्घतपस्वी रूप से निर्देश उनमें आता है जैनागमों में महावीर के विहारक्षेत्र का जो श्राभास मिलता है वह बौद्ध पिटकों के साथ मिलान करने से खरा ही उतरता है । जैनागमों में महावीर के बड़े प्रतिस्पर्द्धा गौशालक का जो वर्णन है वह भी बौद्ध पिटकों के संवाद से सच्चा ही साबित होता है । इस तरह महावीर की जीवनी के महत्त्व के अंशों को ऐतिहासिक बतलाने के लिए लेखक को बौद्ध पिटकों का सहारा लेना ही होगा | । बुद्ध और महावीर समकालीन और समान क्षेत्रविहारी तो थे ही पर ऐतिहासिकों के सामने एक सवाल यह पड़ा है कि दोनों में पहिले किसका निर्वाण हुआ ? प्रोफेसर याकोबी ने बौद्ध और जैन ग्रन्थों को ऐतिहासिक दृष्टि से तुलना करके अन्तिम निष्कर्ष निकाला है कि महावीर का निर्वाण बुद्ध - निर्वाण के पीछे ही श्रमुक समय के बाद ही हुआ है । याकोबी ने अपनी गहरी छानबीन से यह स्पष्ट कर दिया है कि वज्जि - लिच्छिवियों का कोशिक के साथ जो युद्ध हुआ था वह बुद्ध-निर्वाण के बाद और महावीर के जीवनकाल में ही हुआ । वज्जि १. अंगुत्तर भाग. १. १५१ । भाग. २, १६८ । सुमङ्गलाविलासिनी पृ० १४४ २. दीघनिकाय - सामञ्ञफलसुत्त इत्यादि इत्यादि । ३. जैसी तपस्या स्वयं उन्होंने की वैसी ही तपस्या का उपदेश उन्होंने अपने शिष्यों को दिया था । अतएव उनके शिष्यों को बौद्ध ग्रन्थ में जो दीर्घतपस्वी विशेषण दिया गया है उससे भगवान् भी दीर्घतपस्वी थे ऐसा सूचित होता है । देखो मज्झिमनिकाय-उपालिसुत्त ५६ । 'भारतीय विद्या' सिंघी स्मारक अङ्क पृ० १७७ । ४. ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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