Book Title: Mahavir ka Jivan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 13
________________ ४६ जैन धर्म और दर्शन में स्थान दिए जाने के सबूत हों। दूसरी तरफ से सारा जैन समाज अस्पृश्यता के बारे में ब्राह्मण- परम्परा के प्रभाव से मुक्त नहीं है । ऐसी स्थिति में उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन ग्रन्थ में एक चांडाल को जैन दीक्षा दिए जाने की जो घटना वर्णित है और अगले जैन तर्क-ग्रन्थों में जातिवाद का जो प्रबल खण्डन है उसका क्या अर्थ है ? ऐसा प्रश्न हुए बिना नहीं रहता । इस प्रश्न का इसके सिवाय दूसरा कोई खुलासा ही नहीं है कि भगवान् महावीर ने जातिवाद का जो प्रबल विरोध किया था वह किसी न किसी रूप में पुराने आगमों में सुरक्षित रह गया है । भगवान् के द्वारा किए गए इस जातिवाद के विरोध के तथा उस विरोध के सूचक श्रागमिक भागों के महत्त्व का मूल्यांकन ठीक-ठीक करना हो तो भगवान् की जीवनी लिखने वाले को जातिवाद के समर्थक प्राचीन ब्राह्मण-ग्रंथों को देखना ही होगा | महावीर ने बिल्कुल नई धर्म-परम्परा को चलाया नहीं है किन्तु उन्होंने पूर्ववर्ती पार्श्वनाथ की धर्म-परम्परा को ही पुनरुज्जीवित किया है । वह पाश्वनाथ की परम्परा कैसी थी, उसका क्या नाम था इसमें महावीर ने क्या सुधार या परिवर्तन किया, पुरानी परम्परावालों के साथ संघर्ष होने के बाद उनके साथ महावीर के सुधार का कैसे समन्वय हुआ, महावीर का निज व्यक्तित्व मुख्यतया किस बात पर अवलम्बित था, महावीर के प्रतिस्पर्धा मुख्य कौन-कौन थे, उनके साथ महावीर का मतभेद किस-किस बात में था, महावीर आचार के पर अधिक भार देते थे, कौन-कौन राजे-महाराजे आदि महावीर को महावीर किस कुल में हुए इत्यादि प्रश्नों का जवाब किसी न किसी रूप में भिन्नभिन्न जैन - श्रागम-भागों में सुरक्षित है । परन्तु वह जवाब ऐतिहासिक जीवनी का आधार तभी बन सकता है जब कि उसकी सच्चाई और प्राचीनता बाहरी सबूतों से भी साबित हो। इस बारे में बौद्ध-पिटक के पुराने अंश सीधे तौर से बहुत मदद करते हैं क्योंकि जैसा जैनागमों में पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का वर्णन है ठीक वैसा ही चातुर्याम निग्रंथ धर्म का निर्देश बौद्ध पिटकों में भी है" । इस बौद्ध उल्लेख से महावीर के पञ्चयाम धर्म के सुधार की जैन शास्त्र में किस अँश मानते थे, १. अध्ययन १२ । २. सन्मतिटीका पृ० ६६७ । न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ७६७, इत्यादि । ३. उत्तराव्ययन श्र० २५ गाथा ३३ | ४. उत्तराध्ययन ० २३ । भगवती श० २. उ० ५ इत्यादि । ५. दीघनिकाय - सामञ्ञफलसुन्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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