Book Title: Mahavir ka Aparigraha Ek Darshanik Vivechan Author(s): Shrichand Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 4
________________ जैसे हाथी को वश में रखने के लिए अंकूश होता अधोगति में ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनों को त्याग है, और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है वैसे ही देना चाहिए। इन्द्रिय-निवारण के लिए परिगृह का त्याग (कहा माया के विविध रूपों को वणित करके संत कवि गया) है। असंगत्व (परिग्रह-त्याग) से इन्द्रियाँ वश में कबीर ने इसे पापणी कहा है। ..... होती हैं । (समण सुत्त पृष्ठ 47) माया तजु तजी नहिं जाई । माया का त्याग---संतोष से अनुराग फिरि फिरि माया मोहि लपटाई ।। माया . आदर माया मान । परिगृह-त्याग का वास्तविक अर्थ है माया से माया नहीं तहं ब्रह्म गियान । विराग । यही माया है जिसने ब्रह्माण्ड की शान्ति को माया रस माया कर जांन । कुठित कर दिया है, पंगु बना दिया हैं और अहर्निश माया कारनि तजै परांन । इस विश्रान्ति के आंगन में प्रस्फुटित कोमल अंकुरों माया माता माया पिता । को यही विधातिनी तोड़ रही है । यही लोभ अति माया अस्तरी सुता ॥ आसक्ति समत्व की विरोधिनी हैं, समता को नाशिनी माया मारि करै व्यौहार । है, नरक का द्वार है। संसार के समस्त संतों ने इसी- कहै 'कबीर' मेरे राम अधार । लिए माया का तिरस्कार किया है। कबीर माया पापणी, हरि सू करै हराम । श्रीमद्भगवदगीता में (अध्याय 16) कहा गया है- मुखि कड़ियाली कुमति की कहण न देई राम । त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । — (कबीर ग्रन्थावली) कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। आशारूपी नदी की जननी यही माया है और हे अर्जुन ! काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन प्रकार इसे जिस महानानव ने 'संतोष' के माध्यम से जीता हैके द्वार आत्मा का नाश करनेवाले हैं । अर्थात पार किया है-वही धन्य है।' आत्म संतुष्टि का नाम - 3. मोह से महान ऊंचे परबत सों डर आई, तिहूँ जगमूतल को पाय बिस्तरी है। विबिध मनोरथ में भूरि जल भरी वहै, तिसना तरंगिनसों आकुलता धरी है। परै भ्रम भौंर जहां राग सो मगर तहाँ, चिंता चित तट हुंग धर्म बृक्ष ढाय परी है। ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध, ताको धन्य साधु धीरज जहाज चढ़ि तरी है (जैन शतक छंद 76) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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