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भगवान महावीर का अपरिग्रह
एक दार्शनिक विवेचन | प्रो० श्रीचन्द्र जैन
संग्रह-एक चिरंतन प्रवृत्ति
न कर सका । अपने खुले नेत्रों से इसी मानव ने धनवान
की प्रतिष्ठा देखी, दीन-हीन का अनादर देखा और __ अनादि काल से मनुष्य संचय एवं संग्रह श्रीमान के अत्याचारों से प्रपीड़ित कराहती हुई मानवता की ओर आकर्षित होता चला आ रहा है। केवल
को एक बार नहीं अनेक बार देखा। धन-वैभवादि की आकर्षण ही नहीं अपितु विविध प्रकार के संग्रहों
निन्दा करने वाले उन विद्वानों को जब इस इन्सान ने में इस मानव ने स्वयं को इतना संलग्न कर
धनवानों के प्रशस्ति गान में सलग्न पाया तो उसका रखा कि वह अपने उदात्त अस्तित्व को भूला एनं अपनी
अपरिग्रहवादी उन्मेष बालुका-निर्मित भित्ति की भांति आध्यात्मिक चेतना को भी विस्मत कर बैठा इस संदर्भ
शीघ्र बिखर गया । तथ्य तो यह है कि सांसारिक जीवन में उसने गुरुओं से बहुत कुछ सुना सांसारिक परिवर्तनों यापन में धनादि की आवश्यकता अनिवार्य है फिर ने उसे अनेक बार झकझोरा, स्वानुभूति के आलोक में
भी इनके प्रति अमर्यादित गृध्रता अक्षम्य है। उसने अपनी कमजोरियों को विविध रूपों में परखा अपने साथी के सम्पर्क में आकर अपनी भूलों को भी पहचाना भर्तहरि जैसे अनुभवी मनीषी का यह कथन कि तथा धार्मिकता एवं सामाजिकता के आदान-प्रदान में सभी गुण सुवर्ण (धनादि) में रहते है सार्वभौमिक सत्य धनादि की संग्राहक अनुभूति की निस्सारता को अनु- की परिधि में नहीं माना जा सकता है, धन-संग्रह की भूत किया, फिर भी वह अपनी ललक लालसा की उपेक्षा यह एकदेशीय उपयोगिता कही जायगी।
1. यस्यातिवित्तं स नरः कुलीनः स पंडितः स श्रुतबान्गुणज्ञः । स एब वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति । -- सभी गुण सुवर्ण में निवास करते हैं। (क्योंकि) जिसके पास धन है बही आदमी आदमी अच्छे कुल का है, वही विद्वान, वही शास्रज्ञ और गुणों का पारखी है, वही भाषण देने में कुशल है और उसी का दर्शन करना चाहिए । (भर्तृहरि कृत शतकत्रयम्, अनुवादक श्रीकांत खरे, नीति शतकम्, पृष्ठ 34)
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परिप्रह-एक मानसिक संघर्ष
एकत्रित करता हआ व्यभिचारी तक बन जाता है। शंतान की एक अनुकृति है, परिग्रह पशता है, गंभीरता से विचार करते पर यह सत्य हमें प्रभावित उलझन है, संग्राम है, शोषण है. अनर्थ है, संकीर्णता है, करता है कि अपरिग्रही ही सच्चा जैन बनता है । कालिमा है, विष है, मदिरालय है और माया का मानव कहलाता है और सद्गुणी बनकर विश्व की जघन्यरूप है।
धरती पर सम्मानित होता है। सन्तोष की उपलब्धि
का अर्थ है कि मानव के मानस में संचय की भावना परिग्रही का आचरण इतना हेय होता है कि सर्व- नहीं है। साधारण में भी उसकी प्रतिष्ठा कलंकित हो जाती है और उसका आचरणजन्य घेराव उसकी आत्मिक
भगवान महावीर का कथन हैशक्ति को कुठित कर देता। फलतः उसका मानसिक
संगनिमित्ति मारइ, भणइ अत्नी करेइ चोरिक्कं । तनाव इतना असंतुलित हो जाता है कि नह स्व पर सेबइ मेहण मच्छं, अप्परिमाण कणइ जीवो ॥ का विभेद भी भूल उठता है । उलझनों से लिपटा हुआ उसका चिन्तन संकीर्ण होकर अनेक अनर्थों को जन्म जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य देता है और पाप कालिमा से कलुषित उसकी जीवन बोलता, चोरी करता है। मैथुन का सेवन करता है सरिता कुठित धूमिल हो जाती है। परिग्रही की धन और अत्यधिक मूर्छा करता है। (इस प्रकार परिग्रह लिप्सा पशुता का ही दूसरा रूप है, जिसमें न करुणा है पाँचों पापों की जड़ है।)
और न उदारता । भोगों के जाल में आबद्ध ऐसा संग्राहक विषय बासना की कल्पित पूर्ति में ही अपने लक्ष्य की
राग द्वेष की अग्नि को प्रज्वलित करने वाला यह समाप्ति मान लेता हैं जो उसके पतन का प्रारम्भिक
परिग्रह ही है जिसने यत्र-तत्र सर्वत्र विभीषिका के अशोभएवं चरम रूप दोनों ही हैं।
नीय दृश्यों को अधमाधम धरातल पर प्रदर्शित किया है।
कविवर स्व. दुष्यंतकुमार की ये पंक्तियां समाज के रक्तसम्पूर्ण प्रन्थियों का आगार यह अनावश्यक रंजित इतिहास के काले पन्नों को हमारे आगे विचारार्थ संग्रह यद्यपि कांचन-आकर्षण अवश्य है लेकिन इसकी रख रही हैं । इनमें दर्द है, वेदना है दीन की चीत्कार चरमोवलब्धि घृणित मृत्यु मानी गई है।
है और शोषण का आर्तनाद है:सब पापों का मूल परिग्रह
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, विश्व में जितने अनर्थ पाप दुष्कर्म होते हैं उनका एक
___ गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं ।
अब नयी तहबीज के पेशे नजर हम, मात्र कारण परिग्रह है। इसी धन धान्यादि के अनावश्यक संग्रह संचय ने इस पुष्प भूमि को नरकीय रूप में परि
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं। वर्तित कर दिया है । आज नहीं अपितु एक बड़े समय से इंसान अर्थ लोलुपता के कारण अपना सब कुछ भूल
मूर्छा ही परिग्रह है चुका है। छोटे-बड़े संघर्ष इसीलिए हो रहे हैं, कि मनुष्य लालसा, ललक, आकांक्षा, उन्माद, माया, लोलुअपनी लालसा बढ़ाता जा रहा है और बढ़ती हुई उसकी पता आदि को मूर्छा कहा गया है । इसीलिए एक कामना जब अपूर्ण रह जाती है तब वह हिंसा करता है अर्द्धनग्न बनवासी अपरिग्रही नहीं है क्योंकि उसके मानस मिथ्या बोलता कुकर्म करता, चोरी करके धनादि को में धनादि के संग्रह की कामना भावना निरन्तर जीवित
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रहती है जो अपूर्ण होने के कारण उसकी विह्वलता जब तक मनूज-मनुज का यह, . को दहकाती है । इसके विपरीत एक नृपति जो विशाल
सुख भोग नहीं कम होगा ।। वैभव का स्वामी है । जो राज्यश्री से असंप्रक्त है उसे ___ शांत न होगा कोलाहल, अपरिग्रही कहा गया है। इस संबंध में अनेक धार्मिक
संघर्ष नहीं कम होगा । कथाओं को प्रस्तुत किया जा सकता है। मोक्ष शास्त्र
परिग्रह के भेद : के सप्तम अध्याय में वर्णित है-.
. परिग्रह दो प्रकार का है-आभ्यांतर और बाह्य मूर्छा परिग्रहः ।।17।
आभ्यांतर परिग्रह चौदह प्रकार का है: 1. मिथ्यात्व,
2. स्त्रीवेद, 3. पुरुषवेद, 4. नपुसकवेद, 5. हास्य, मूर्छा को परिग्रह कहते हैं । मूर्छा का अर्थ है --
6. रति, 7. अरति, 8. शोक, 9. भय, 10. बाह्य धन, धान्यादि तथा अन्तरंग क्रोधादि कषायों
जुगुप्सा, 11. क्रोध, 12. मान, 14. माया, 14. में वे मेरे हैं ऐसा भाव रहना ।
लोभ । . चार संज्ञाओं में परिग्रह संज्ञा को भी परिगणित
___बाह्य परिग्रह. दस प्रकार का है :करके तत्वार्थ सार में बताया गया है कि अंतरंग में
1. खेत, 2. मकान, 3. धन-धान्य, 4. वस्त्र, 5. लोभ कषाय की उदारणता होने से तथा बहिरंग में
भाण्ड, 6. दास-दासी, 7. पशू, 8. यान, 9. शय्या, उपकरणों के देखने, परिग्रह की ओर उपयोग जाने तथा
10. आसन । (दृष्टव्य-समण सुत्त, पृष्ठ 47) . मुभिाव-ममता भाव के होने से जो इच्छा होती है उसे परिग्रह संज्ञा कहते है । यह संज्ञा दशम गुणस्थान आन्तरिक शुद्धि और बाह्य शुद्धि के लिए दोनों तक होती है। (देखिए श्रीमदमृतचन्द सूरि कृत तत्वार्थ प्रकार के परिग्रह का क्रम से परित्याग आवश्यक है। सार, सम्पादक-पंडित पन्नालाल साहित्याचार्य, पृ. 46) लेकिन आभ्यांतर परिग्रह के त्याग से वाह्य आडम्बर
(परिग्रह) के प्रति अनुरक्ति स्वतः नष्ट हो जाती है। परिग्रह का संचय न होकर यदि इसका आवश्यकता:
मानसिक परिशुद्धि, आत्मोत्थान के लिए सर्वदा नुसार वितरण होता रहे तो संसार की विषमता शीघ्र
वान्छित कही गई है। समाप्त होगी और संघर्षों में खनखनाते हुए तड़तड़ाते हुए अस्त्र-शस्त्रों का प्रलाप समाप्त हो जावेगा। अन्यथा अविनश्वर विश्रान्ति के हेतु इन्द्रियनिग्रह प्रमुख यह विरोध कभी न समाप्त होगा और सदा भवातुरता साधन है तथा एतदर्थ परित्याग सर्वप्रधान है। कहा व्याप्त रहेगी। कविवर दिनकर की ये चार पंक्तियाँ गया है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ (परिग्रह) से मुक्त, शीतीभत परिग्रह से आतंकित बेचैनी को उघाड़ती हैं उजागर प्रसन्न चित्त श्रमण जैसा मुक्तिसूख पाता है, वैसा सूख करती हैं :
चक्रवर्ती को भी नहीं मिलता। .
2. तत्वार्थसार में भी इसी तथ्य.को इस प्रकार प्रमाणित किया गया है:- ममेदमिति संकल्प रूपा मूर्छा परिग्रहः ॥ 77 ।'
-'यह मेरा है इस प्रकार के संकल्प रूप मूर्छा को परिग्रह कहते हैं ।
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जैसे हाथी को वश में रखने के लिए अंकूश होता अधोगति में ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनों को त्याग है, और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है वैसे ही देना चाहिए। इन्द्रिय-निवारण के लिए परिगृह का त्याग (कहा
माया के विविध रूपों को वणित करके संत कवि गया) है। असंगत्व (परिग्रह-त्याग) से इन्द्रियाँ वश में
कबीर ने इसे पापणी कहा है। ..... होती हैं । (समण सुत्त पृष्ठ 47)
माया तजु तजी नहिं जाई । माया का त्याग---संतोष से अनुराग
फिरि फिरि माया मोहि लपटाई ।।
माया . आदर माया मान । परिगृह-त्याग का वास्तविक अर्थ है माया से माया नहीं तहं ब्रह्म गियान । विराग । यही माया है जिसने ब्रह्माण्ड की शान्ति को
माया रस माया कर जांन । कुठित कर दिया है, पंगु बना दिया हैं और अहर्निश माया कारनि तजै परांन । इस विश्रान्ति के आंगन में प्रस्फुटित कोमल अंकुरों माया माता माया पिता । को यही विधातिनी तोड़ रही है । यही लोभ
अति माया अस्तरी सुता ॥ आसक्ति समत्व की विरोधिनी हैं, समता को नाशिनी
माया मारि करै व्यौहार । है, नरक का द्वार है। संसार के समस्त संतों ने इसी- कहै 'कबीर' मेरे राम अधार । लिए माया का तिरस्कार किया है।
कबीर माया पापणी, हरि सू करै हराम । श्रीमद्भगवदगीता में (अध्याय 16) कहा गया है- मुखि कड़ियाली कुमति की कहण न देई राम । त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
— (कबीर ग्रन्थावली) कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।
आशारूपी नदी की जननी यही माया है और हे अर्जुन ! काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन प्रकार इसे जिस महानानव ने 'संतोष' के माध्यम से जीता हैके द्वार आत्मा का नाश करनेवाले हैं । अर्थात पार किया है-वही धन्य है।' आत्म संतुष्टि का नाम
-
3.
मोह से महान ऊंचे परबत सों डर आई,
तिहूँ जगमूतल को पाय बिस्तरी है। विबिध मनोरथ में भूरि जल भरी वहै,
तिसना तरंगिनसों आकुलता धरी है। परै भ्रम भौंर जहां राग सो मगर तहाँ,
चिंता चित तट हुंग धर्म बृक्ष ढाय परी है। ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध, ताको धन्य साधु धीरज जहाज चढ़ि तरी है
(जैन शतक छंद 76)
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हो संतोष है । इससे निलॉभ की भावना बलवती होती है, दया की वृद्धि होती है, और उदारता में सत्य का अनुभव होने लगता है । यही सन्तोष अनन्त कामना को समाप्त करता है और आत्मा में ही विराट विश्व की कल्पना को साकार बनाता है । सन्तोष ही परम सुख है । अतः परिग्रह के परित्याग में इसी गुण (सन्तोष) का विशेष महत्व है। आशा तृष्णा को निर्मूल करनेवाला सन्तोष ही है जो आत्म चिंतन को सफल बनाकर नर को नारायणत्व प्रदान करता है। कविवर बनारसीदास का निम्नस्थ पद यहाँ उल्लेख्य
है
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रे मन, कर सदा संतोष, जातें मिटत सब दुःख दोष | रे मन कर सदा सन्तोष ।
बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तिसना होति । बहुत ईंधन जरत जैसे अगिनि ऊँची जोति, रे मन, कर सदा संतोष । लोभ लालच मूढ़ जन सो कहत कंचन दान | फिरत आरत नहि बिचारत, धरम धन की हान । रे मन कर सदा संतोष,
नारकिन के पादूसेवत सकुच मानत संक । ज्ञान करि बूझे 'बनारमि' को नृपति को रक । रे मन, कर सदा सतोष ।
4.
स्व-पर-भेद का प्रकाशक संतोष है जिसने संतोष ने मायाजनित विकारों को नष्ट किया एवं मन के समस्त दोषों का परिमार्जन कर उसे ( मन को शुद्ध चितन में लगाया है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विनय
आध्यात्म-पदावली, पृष्ठ 105
1
।
पत्रिका के अनेक पद इस संदर्भ में पठनीय है। कामनाओं को त्याग करनेवाला संतोषी ही है जिसे अपरि ग्रही भी कहा गया है। भगवान महावीर ने कहा है
कामे कमा ही कमियं सुदुक्खं ।'
जो कामनाओं को त्याग देता है वह समस्त दुःखों से छुटकारा पा लेता है। क्योंकि :
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इच्छा हु आगास समा अनंतिया । उत्त०
इच्छाएँ (कामनाएँ) आकाश के समान अनंत हैं, एवं इनकी पूर्ति असंभव है । एक ही पूर्ति दूसरी (कामना) को जन्म देती है।
एक संत कवि का यह दोहा सन्तोष की व्यारूपा में पर्याप्त है
गोधन, गजधन, रत्नधन, कंचन खान सुखान । जब आवे संतोष धन सब धन धूल समान ॥
गोस्वामी तुलसीदास संतोष की महिमा अंकित करते हुए कहते हैं
संतोष के बिना कोई भी आत्मिक शान्ति प्राप्त नहीं
कर सकता ।
सोरठा
कोउ विश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु । चलें कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिअ । (दोहावली 275)
माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर । आशा तृसिना ना मरी, सो कह गए दास कबीर ।
-संत कबीर
स्वभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा सकता है ? चाहे करोड़ों प्रकार से जतन करते-करते
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मर जाय, जल के बिना सूखी जमीन पर क्या कभी परहित-निरत निरन्तर, मन क्रम वचन नेम निवहौंगो नाव चल सकती है ?
परिहरि देह जनित चिंता, दुखसुख समबुद्धि सहौंगो
तुलसीदास प्रभु यह पथि रहि, अविचल हरिभक्ति लहोंगो 'जैन धर्मामत' में कहा गया है कि जिस पुरुष को संतोष रूपी आभूषण प्राप्त है उसके समीप में सदा
(विनय पत्रिका पद 172) निधियाँ विद्यमान रहती हैं, कामधेनु अनुगामिनी बन जाती है और अमर किंकर बन जाते हैं :
स्वहित एवं राष्ट्र-हित में परिग्रह-मर्यादा आव
श्यक हैं। सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमराः किङ्करायन्ते संतोषो यस्य भूषणम् ।
परिग्रह-परिधि के लिए हमें सदा सजग रहना (चतुर्थ अध्याय, पृष्ठ 135) चाहिए । यह सर्वमान्य है कि जैन श्रावक--गृहस्थ के
के लिए धन-धान्यादि की आवश्यकता निरन्तर रहती प्राणी की तप्ति होना असंभव सा है' जैसे ईधन है। फिर भी उनका परिमाण निश्चित होना जरूरी है। से अग्नि की, और हजारों नदियों से लवण समुद्र की दिगम्बर मनि-साधक के लिए तो पूर्णरूपेण अपरिग्रही तप्ति नहीं होती, वैसे ही तीन लोक की सम्पत्ति प्राप्त होना परमावश्यक है। हो जाने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती । यह असाध्य रोग संतोष से ही साध्य बनता है और शनैः
उसे परिग्रह त्याग महाव्रती होना, जरूरी हैशनैःनिर्मूल हो जाता है।
अन्यथा उसका स्वरूप ही कलंकित हो जायगा। वाह्य
परिग्रह का दिगम्बर साधु त्यागी रहता ही है और भगवान महावीर ने कहा है कि कामना और भय से अतीत हीकर यथालाभ संतुष्ट रहनेवाले
साथ ही साथ आभ्यांतर परिग्रह के परित्याग में वह मेधावी पाप नहीं करते :
सदैव संलग्न माना गया है । जैन मुनि की इस साधना
में न अतिचार आना चाहिए और न अनाचार । लेकिन मेहाविणो लोम भयावईया संतोषिणो व पकरेंति पावं। जैन श्रावक के लिए परिग्रह परिणाम ब्रत का विशेष संतप्रवर गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसी संतोष
महत्व है । कहा भी है :वृति की कामना की है :
धन-धान्य आदि वाह्य दस प्रकार के परिग्रह का कबहुक हौं यहि रहनि रहौंगे ।
परिमाण करके उससे अधिक वस्तुओ में निस्पृहता श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपा ते संत-सुभाव गहौंगो। रखना सो इच्छा परिमाण नामका पांचवा परिग्रह जथा लाम संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो। परिमाण वृत है।
5. चेतनेतर बाह्यान्तरग विवर्जनए ।
ज्ञान संयमसंगो वा निममत्वमसगता। (जन धर्नामृत पचम अध्याय) चेतन और अचेतन तथा वाह्य और अंतरंग सर्व प्रकार के परिग्रह को छोड़ देना और निर्गमत्व भाव को अंगीकार करना अथवा ज्ञान और संयम का ही संगम करना सो असंगता नामक परिग्रह त्याग महाबत जानना चाहिए।
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धन्य-धान्यादि ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्प्रहता । परिमित परिग्रहः स्यादिच्छा परिमाण नामापि । (जैन धर्मामृत चतुर्थ अध्याय)
इसी प्रकार प्रत्येक श्रावक को यह जानना चाहिए कि संसार के मूल कारण आरम्भ हैं, और इन आरम्भों का मूल कारण परिग्रह है. इसलिए श्रावक को चाहिए कि वह अपने परिग्रह को दिन प्रतिदिन कम करता जात्रे ।
ससार मूलमारंभास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्यं परिग्रहम् ॥
जैन धर्म विश्वधर्म है और इसका प्रत्येक सिद्धांत जन-जन का हितकारी है, कल्याण कारी है मंगलकारी है । हरएक जैन साधक देव पूजा में लोक कल्याण की कामना करता है ।" तथा मानव समाज में कल्पित भेदभाव को भूल कर प्राणी मात्र के हित में अपने जीवन को समर्पित करने का संकल्प करता है । ऐसी स्थिति
6.
( जैन धर्मामृत, चतुर्थ अध्याय, 72)
में दूसरों को पीड़ित कर अन्य के देय को हड़पकर दीन की कुटिया को नष्ट कर एवं जनता की हरी-भरी कामना को मिटाकर अपना महल बनाना, गुप्त गृहों को धन-धान्यादि से भरना, अपने परिवार के सदस्यों को सोने-चांदी के आभूषणों से अलंकृत करना तथा रेशमी गद्दों पर लेटकर अपनी थकान मिटाना कहाँ तक उचित ? लोक कल्याण में संलग्न हमारी माननीया प्रधान मंत्री के बीस सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम की पूर्ण सफलता भगवान महावीर के परिग्रह में ही सन्निहित है । प्रत्येक भारतीय को इस पर विचार करना चाहिएबाँके खाइए, बैकुठ जाइए - यह एक ग्रामीण कहावत है, जिनमें जन कल्याण की भावना मुखरित हुई है । एक दूसरी कहावत है जिसका भाव है कि जो दूसरों के हाथ से छीनकर खाता है, वह नरकगामी होता है । इसलिए हमें कामनाओं को कम करके दूसरों के दुख दर्दों की चिन्ता करनी चाहिए, अन्यथा मनुष्य एवं पशु में क्या भेद है ?
परिग्रह परिमाण पाँच अणुव्रतों में अंतिम है और चार व्रतों का संरक्षण करना एवं बढ़ाना इसके अधीन
(क) होवे सारी प्रजा को सुख बलयुत धर्म धारी नरेशा । होवै वर्षा समं पं तिलभर न रहै ब्याधियों का अन्देशा | होबे चोरी न जारी सुसमय वरते हों न दुस्काल भारी । सारे ही देश धारें जिनवर वृषको जो सदा सौख्यकारी । (शांतिपाठ )
(ख) सत्त्वेषुमैत्री गुणीषु प्रमोदं ।
क्लिष्टेषु जोबेषु कृपादरत्वं ।
माध्यस्थ भाव बिपरीतवृत्तौ ।
सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ (सामयिक पाठ)
(ग) मंत्री भाव जगत में मेरा, सव जीवों से नित्य रहे ।
दीन दुखी जीवों पर मेरे उर से दुर्जन-क्रूर कुमार्ग रतों पर, क्षोभ साम्य भाव रक्ख मैं उन पर ऐसी
(घ) परस्परोपग्रहो जीवानाम् । ( जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत -- तत्त्वार्थ सूत्र )
करुणा स्रोत वहै ।
नहीं मुझको आबे ।
परिणति हो जाबे । (मेरी भावना)
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है, परिग्रह को घटाने में हिंसा, असत्य, अस्तेय, कुछ क्षणों के लिए अवश्य कभी-कभी मानव चेतना को कुशील, इन चारों पर रोक लगती है । इस ब्रत के सजग बनाता है लेकिन यह सजगता निरर्थक ही रहती परिणामस्वरूप जीवन में शान्ति और सन्तोष प्रकट है। वस्तुतः यह कितनी बड़ी म ढ़ता है कि संचय होने से सूख की वृद्धि होती है । निश्चिन्ता और सग्रह के दुष्परिणामों को हम नित्य प्रति देख रहे हैं निराकुलता आती है। ऐसी स्थिति होने से धर्म क्रिया फिर भी पशु के समान पारस्परिक विद्वेष बढ़ाकर की ओर मनुष्य का चित्त अधिकाधिक आकर्षित होता संग्रह में हम लीन हैं । है । इस ब्रत के ये वैयक्तिक लाभ हैं । किन्तु सामाजिक दृष्टि से भी यह ब्रत अत्यन्त उपयोगी है । आज जो
यदि हम मानव हैं, अमीर-गरीब की खाई को आर्थिक वैषम्य दृष्टिगोचर होता है, इस ब्रत का पालन पाटना चाहत ह, दान-हान
पाटना चाहते हैं, दीन-हीन के भेद को मिटाना चाहते न करने का ही परिणाम है। आथिक वैषम्य इस युग हैं तो हमें अपरिग्रह को शीघ्र अपना लेना चाहिए, की एक बहुत बड़ी समस्या है आज कुछ लोग अन्यथा परिणाम बड़े दुखद होंगे। समाजवाद के प्रति यंत्रों की सहायता से प्रचर धन एकत्र कर लेते हैं तो भारतीय जनता विशेषतः आकर्षित है, यह आकर्षण दूसरे लोग धनाभाव के कारण अपने जीवन की अनि- सर्वथा उचित है, यह वाद शोषण से मुक्ति दिलाता है, वार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने से भी वंचित रहते सबको भरपेट रोटी देता है अत्याचारों एवं अनाचारों हैं। उन्हें पेट भर रोटी, तन ढकने को वस्त्र और से प्रपीड़ित जन को सुख की सांसे लेने का पूरा अवसर
औषधि जैसी चीजें भी उपलब्ध नहीं। इस स्थिति का देता है और समानता की भावना को निरंतर मूर्त रूप सामना करने के लिए अनेक वादों का जन्म हुआ है। देता रहता है। इसके (समाजवाद) अन्तर्गत सब को समाजवाद, साम्यवाद, सर्वोदयवाद आदि इसी के समान अधिकार प्राप्त होते हैं सब अपनी योग्यतानफल हैं। प्राचीन काल में परिग्रह वाद के द्वारा इस सार कार्य करने के लिए साधन सम्पन्न कराये जाते हैं समस्या का समाधान किया जाता था। .... . अतएव तथा आर्थिक दृष्टि से सब में एकरूपता लाने का सफल अगर परिग्रह ब्रत का व्यापक रूप में प्रचार और
प्रयास किया जाता है वस्तुत: यह वाद भारत के लिए अंगीकार हो तो न अर्थ-वैषम्य की समस्या विकराल वरदान के रूप में वरेण्य है। रूप धारण करे और न वर्ग-संघर्ष का अवसर उपस्थित हो।'
ऐसे तो अपरिग्रह सभी धर्मों का आधार है । अप
रिग्रह कहने से नहीं करने से होता है। समाज के सभी सब इस तथ्य से परिचित हैं कि यह सब बाह्य धर्मों में अपरिग्रह की साधुओं और गृहस्थों के लिए वैभव है, क्षणिक है और मृत्यु होने पर मानव की आत्मा अलग-अलग व्याख्याएं हैं। हमें व्याख्या करनी है अपने एकाकी हो जाती है। अन्यायोपाजित सब द्रव्यादि यहीं लिये ना कि दूसरों के लिए .......अपरिग्रह के लिए प्रथम पर पड़े रहते हैं, फिर भी मोहवश मनुष्य उन्मत्तवत् इस बात है कि इच्छा को जैसे चाहे मोडे, बुरी इच्छा न व्यापक तत्ब से अज्ञात सा रहता है । श्मशान वैराग्य करें और यदि सदिच्छा भी करें तो उसे परमित ही रखों
7. आचार्य-श्री हस्तीमल जी, म. सा.-परिग्रह-मर्यादा, व्यक्ति और समाज के संदर्भ में,
जिनवाणी, मार्च 1976 से साभार. समाजवाद में उत्पादन, वितरण एवं उपभोग पर सामाजिक नियंत्रण होता है।
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अपरिग्रह की व्याख्या है कि कोई भी अपनी जरूरत निश्चयतः धन विष है कामना की अतृप्ति है, से ज्यादा न रखे...अपरिग्रह का सिद्धान्त समाजवाद से और माया का मोहक रूप है। भी आगे है। जहाँ समाजवाद की सीमा है उससे आगे
भगवान महावीर ने कहा - अपरिग्रह है समाजवाद अपरिग्रह में ही निहित है, अपरिग्रह का लक्ष्य है भगवान और मनुष्य को एक बनाना। धर्म (१)-मुच्छा परिग्रहो वुत्तो। क्या है ? धर्म एक है, मानव धर्म, मानव धर्म कि मनुष्य मनुष्य का शोषण न करें समाज में ऊंच नीच का भेद
(वस्तु के प्रति रहे हुए ममत्व भाव को परिग्रह
कहा है।) न हो । आर्थिक असमानताएं कम हों, समाजवाद में सब मनुष्य समान होते हैं। इस प्रकार अपरिग्रह और (2) वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते समाज का अटूट सम्बन्ध है समाजवाद लोकतांत्रिक
इम्मि लोए अदुवा परत्था । तरीके से आता है तानाशाही से नहीं।'
(प्रमत्त पुरुष धन के द्वारा न तो इस लोक में अपनी
रक्षा कर सकता है और न परलोक में ही।) धन शाप है वरदान नहीं
(3) नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि, सांसरिक संघर्ष का प्रमुख कारण धन है जिसके
सव्व जीवाणं सव्व लोए । लिए पिता पत्र की हत्या करता है, पति पत्नी को म त्य के मुख में डालता है, और भाई बहन के गले को दवाते (विश्व के सभी प्राणियों के लिए परिग्रह के समान हुए भी नहीं हिचकता है। एक अंग्रेजी कहावत है दूसरा कोई जाल नहीं बंधन नहीं ।) जिसमें कहा गया है कि धन ही सब अनर्थों की जड़ है।
(4) बहुपि लद्धं न निहे इस धन अर्जन में दुखः है संरक्षण में कष्ट है तथा इसके
परिग्गहाओ अप्पाणं अवसविकज्जा । व्यय में वेदना होती है इसलिए यह धन निरंतर पीडा दायक है इसमें सुख कहाँ ?
(बहुत मिलने पर भी संग्रह न करे । परिग्रह-वृत्ति
__ से अपने को दूर रखे।) अर्थानामर्जने दुःखं अजितानाञ्चरक्षणे ।
(5) जया निविदए भोगे, जे दिव्वे जे य माणुसे । आये दुःखं व्यये दुःखं घिगर्थ शोक भाजनम् ।।
तया चयइ संजोगं, सभितर-बाहिरं ।, __एक संस्कृत कवि
(जब मनुष्य दैविक और मानुषिक (मनुष्य संबंधी) धन का सदुपयोग यही है कि हम इसका संचय भोगों से विरक्त हो जाता है, तब आभ्यन्तर और बाह्यन करें अपितु जरूरतमंदों में इसे बांट दें:
परिग्रह को छोड़कर आत्म साधना में जूट जाता है।)
पानी बाढ़ नाब में, घर में बाढ़े दाम । दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ।।
(6) जे पावकम्मेहि धणं मणूसा,
समायन्ती अमयं गहाय ॥
9. मोरारजी देसाई-समाजवाद-अपरिग्रह के सिद्धान्त में निहित-'तीर्थ कर', जून 1972., पृष्ठ 37.
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पहाय ते पास पर्याट्ठिए नरे । वेराणुबद्धा नरयं उणेंति ॥
( जो मनुष्य धन को अमृत मानकर अनेक पाप कर्मों द्वारा उसका उपार्जन करते हैं, वे धन को छोड़कर मौत के मुँह में जाने को तैयार हैं, वे बैर से बँधे हुए मरकर नरकवास प्राप्त करते हैं ।)
(7) परिग्गह निट्ठिाणं, वैरं तेसि पवड्ढई ।
( जो परिग्रह संग्रह वृत्ति में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति बैर की ही अभिवृद्धि करते 1)
(8) थोवाहारो थोवभणिओ य, जो होइथोवनिछोय थोवो हि उवगरणो, तत्स हु देवा वि पणमंति ।
( जो साधक मिताहारी, मितभाषी मित-शायी और मिल परिग्रही है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं ।)
है | )
( 9 ) जे ममाइअ मई जहाइ से जहाइ ममाइअं । ( जो साधक अपनी ममत्व बुद्धि का त्याग कर सकता है वही परिग्रह का त्याग करने में समर्थ हो सकता है | )
( 10 ) एतदेव एगेसि महब्भयं भवइ ।
( परिग्रह ही इस लोक में महाभय का कारण होता
( 11 ) लोहस्सेस अणुप्फासो, मन्न अन्नयरामव ।
( संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है ।)
( 12 ) मा नो द्विक्षत कश्चन ।
( हम किसी से द्व ेष न करें)
( 13 ) नाञ्ञमञ्जस्स दुक्खमिच्छेय |
(कोई भी किसी दूसरे के लिये दुःख की इच्छा न करें । )
( 14 ) सब्वे सत्ता अवेरिनो होन्तु मा वेरिनो । (सभी व्यक्ति अबेर बनें कोई भी किसी के साथ बैर न रखें ।)
( 15 ) सब्वे सत्ता भवन्तु, सुखवत्ता । (संसार के सभी जीव सुखी हों, सुखी रहें !)
( श्री गणेश मुनि शास्त्री, सं.- भगवान महावीर के हजार उपदेश)
यह शरीर भी परिग्रह है
जिस शरीर के लिये इतने अधिक आडम्बर एकत्रित किए जाते हैं तथा जिसकी संरक्षा के हेतु रात-दिन चितित रहना पड़ता है वह तन भी कम विघातक नहीं है । करोड़ों के सौन्दर्य प्रसाधन इसी देह की कमनीयता की बुद्धि को अधिक आकर्षक बनाने के लिए खरीदे जाते हैं । इस भौतिक युग में चंचल तरुणाई अधिक भ्रमित है जिसका कारण शारीरिक सुन्दरता कही जा सकती है ।
भगवान् महावीर ने परिग्रह को तीन रूपों में विभाजित किया है जिसमें शरीर को भी परिग्रह बताया गया है।
कर्मपरिग्रह, शरीरपरिग्रह, वाह्यभण्ड मात्र उप करण परिग्रहः
तिविहे परिग्गहे पण ते त जहाकम्म – परिग्गहे, बाहिर भंडमत्त परिग्गहे ।
परिग्रही नरक में जाता है
अर्थादि संग्रह में लोलुपी जितना पर-पीड़न करता है उससे हजार गुना कष्ट उसे भोगना न्यायतः समुचित
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________________ ही है। इसलिए परशोषक को नारकीय जीवन रो-रो और बेचे जाते थे। विलासता, वैभव का उच्छखल कर बिताना ही चाहिए अन्यथा शुभाशुभ कर्मों का ताण्डव नृत्य था। भगवान ने सामाजिक विषमता प्रतिफलन कैसे प्रमाणित होगा। आचार्य श्री उमा- को समझा एवं उसके परिमार्जन में सफल प्रयास किये। स्वामी ने मोक्षशास्त्र (तत्वार्थसूत्र) के अध्याय 6 में (देखिए महावीर युग में समाज और धर्म की स्थिति कहा है कि बह्वारम्भ परिग्रहत्व नारकस्या यषः / लेखक डा. ज्योति प्रसाद जैन, भगवान महावीर स्मति बहुत आरंभ और परिग्रह का होना नरक आयु का ग्रन्थ खण्ड 3, पृष्ठ 3 1) अस्तित्व है। इसी प्रकार माया (छल-कपट) तिर्यञ्च आयु का आस्त्रव है:--माया तैर्यग्योनस्य (मोक्षशास्त्र जिस प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए शुद्ध आचार अध्याय 6 सूत्र 16) निष्पक्ष विचारक इस मान्यता के विचार आवश्यक है उसी प्रकार मानवता के उदात्त पूर्ण समर्थक हैं कि परिग्रह जब स्वयँ नरक है तब उपके संरक्षण में अपरिग्रहवाद सर्वोपरि है। इस सजनात्मक स्नेही को पातकी बनकर नरक में रहना और तड़पना सत्य के दृष्टिकोण को भगवान ने भली मांति अंगीकार स्वाभाविक ही है। कर अपरिग्रह की गरिमा को बहुरूपों में समाज के सन्मुख प्रस्तुत किया और कराहती हई इन्सानियत को वीर-युग-अनेक द्वन्दों का आतंक शुद्ध जिजीविषा प्रदान की। भगवान महावीर का यही महावीर के समय को यदि आत्मधातौ कहा जाय तो अपरिग्रह है और यही जैन मत का मूलाधार है। कुछ सीमा तक अनुचित नहीं है। इस युग में मानवता खंडित थी, धर्मों के रूप प्रशस्तन, थे स्वार्थपूर्ण मनोवृ. यदीया बांग्गंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला। त्तियां जनता के मानस को खसोट रही थीं एवं दीन बहद् ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति / अमीर का भेद व्यापकता ले चुका था। नारी का करुण इदानीमप्येषा बुधजन-मरालः परिचिता / क्रन्दन किसी ह्दय को प्रभावित करने में असमर्थ था / महावीर स्वामी नयस-पथ-गामी भवंतु नः / दास दासियाँ बाजारों में मूक पशुओं की तरह खरीदे -पंडित भागचन्द्र. महाबीराष्टक. 134