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हो संतोष है । इससे निलॉभ की भावना बलवती होती है, दया की वृद्धि होती है, और उदारता में सत्य का अनुभव होने लगता है । यही सन्तोष अनन्त कामना को समाप्त करता है और आत्मा में ही विराट विश्व की कल्पना को साकार बनाता है । सन्तोष ही परम सुख है । अतः परिग्रह के परित्याग में इसी गुण (सन्तोष) का विशेष महत्व है। आशा तृष्णा को निर्मूल करनेवाला सन्तोष ही है जो आत्म चिंतन को सफल बनाकर नर को नारायणत्व प्रदान करता है। कविवर बनारसीदास का निम्नस्थ पद यहाँ उल्लेख्य
है
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रे मन, कर सदा संतोष, जातें मिटत सब दुःख दोष | रे मन कर सदा सन्तोष ।
बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तिसना होति । बहुत ईंधन जरत जैसे अगिनि ऊँची जोति, रे मन, कर सदा संतोष । लोभ लालच मूढ़ जन सो कहत कंचन दान | फिरत आरत नहि बिचारत, धरम धन की हान । रे मन कर सदा संतोष,
नारकिन के पादूसेवत सकुच मानत संक । ज्ञान करि बूझे 'बनारमि' को नृपति को रक । रे मन, कर सदा सतोष ।
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स्व-पर-भेद का प्रकाशक संतोष है जिसने संतोष ने मायाजनित विकारों को नष्ट किया एवं मन के समस्त दोषों का परिमार्जन कर उसे ( मन को शुद्ध चितन में लगाया है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विनय
आध्यात्म-पदावली, पृष्ठ 105
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पत्रिका के अनेक पद इस संदर्भ में पठनीय है। कामनाओं को त्याग करनेवाला संतोषी ही है जिसे अपरि ग्रही भी कहा गया है। भगवान महावीर ने कहा है
कामे कमा ही कमियं सुदुक्खं ।'
जो कामनाओं को त्याग देता है वह समस्त दुःखों से छुटकारा पा लेता है। क्योंकि :
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इच्छा हु आगास समा अनंतिया । उत्त०
इच्छाएँ (कामनाएँ) आकाश के समान अनंत हैं, एवं इनकी पूर्ति असंभव है । एक ही पूर्ति दूसरी (कामना) को जन्म देती है।
एक संत कवि का यह दोहा सन्तोष की व्यारूपा में पर्याप्त है
गोधन, गजधन, रत्नधन, कंचन खान सुखान । जब आवे संतोष धन सब धन धूल समान ॥
गोस्वामी तुलसीदास संतोष की महिमा अंकित करते हुए कहते हैं
संतोष के बिना कोई भी आत्मिक शान्ति प्राप्त नहीं
कर सकता ।
सोरठा
कोउ विश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु । चलें कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिअ । (दोहावली 275)
माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर । आशा तृसिना ना मरी, सो कह गए दास कबीर ।
-संत कबीर
स्वभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा सकता है ? चाहे करोड़ों प्रकार से जतन करते-करते
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