Book Title: Mahavir ka Aparigraha Ek Darshanik Vivechan
Author(s): Shrichand Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 1
________________ भगवान महावीर का अपरिग्रह एक दार्शनिक विवेचन | प्रो० श्रीचन्द्र जैन संग्रह-एक चिरंतन प्रवृत्ति न कर सका । अपने खुले नेत्रों से इसी मानव ने धनवान की प्रतिष्ठा देखी, दीन-हीन का अनादर देखा और __ अनादि काल से मनुष्य संचय एवं संग्रह श्रीमान के अत्याचारों से प्रपीड़ित कराहती हुई मानवता की ओर आकर्षित होता चला आ रहा है। केवल को एक बार नहीं अनेक बार देखा। धन-वैभवादि की आकर्षण ही नहीं अपितु विविध प्रकार के संग्रहों निन्दा करने वाले उन विद्वानों को जब इस इन्सान ने में इस मानव ने स्वयं को इतना संलग्न कर धनवानों के प्रशस्ति गान में सलग्न पाया तो उसका रखा कि वह अपने उदात्त अस्तित्व को भूला एनं अपनी अपरिग्रहवादी उन्मेष बालुका-निर्मित भित्ति की भांति आध्यात्मिक चेतना को भी विस्मत कर बैठा इस संदर्भ शीघ्र बिखर गया । तथ्य तो यह है कि सांसारिक जीवन में उसने गुरुओं से बहुत कुछ सुना सांसारिक परिवर्तनों यापन में धनादि की आवश्यकता अनिवार्य है फिर ने उसे अनेक बार झकझोरा, स्वानुभूति के आलोक में भी इनके प्रति अमर्यादित गृध्रता अक्षम्य है। उसने अपनी कमजोरियों को विविध रूपों में परखा अपने साथी के सम्पर्क में आकर अपनी भूलों को भी पहचाना भर्तहरि जैसे अनुभवी मनीषी का यह कथन कि तथा धार्मिकता एवं सामाजिकता के आदान-प्रदान में सभी गुण सुवर्ण (धनादि) में रहते है सार्वभौमिक सत्य धनादि की संग्राहक अनुभूति की निस्सारता को अनु- की परिधि में नहीं माना जा सकता है, धन-संग्रह की भूत किया, फिर भी वह अपनी ललक लालसा की उपेक्षा यह एकदेशीय उपयोगिता कही जायगी। 1. यस्यातिवित्तं स नरः कुलीनः स पंडितः स श्रुतबान्गुणज्ञः । स एब वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति । -- सभी गुण सुवर्ण में निवास करते हैं। (क्योंकि) जिसके पास धन है बही आदमी आदमी अच्छे कुल का है, वही विद्वान, वही शास्रज्ञ और गुणों का पारखी है, वही भाषण देने में कुशल है और उसी का दर्शन करना चाहिए । (भर्तृहरि कृत शतकत्रयम्, अनुवादक श्रीकांत खरे, नीति शतकम्, पृष्ठ 34) १२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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