Book Title: Mahavir ka Aparigraha Ek Darshanik Vivechan Author(s): Shrichand Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 3
________________ रहती है जो अपूर्ण होने के कारण उसकी विह्वलता जब तक मनूज-मनुज का यह, . को दहकाती है । इसके विपरीत एक नृपति जो विशाल सुख भोग नहीं कम होगा ।। वैभव का स्वामी है । जो राज्यश्री से असंप्रक्त है उसे ___ शांत न होगा कोलाहल, अपरिग्रही कहा गया है। इस संबंध में अनेक धार्मिक संघर्ष नहीं कम होगा । कथाओं को प्रस्तुत किया जा सकता है। मोक्ष शास्त्र परिग्रह के भेद : के सप्तम अध्याय में वर्णित है-. . परिग्रह दो प्रकार का है-आभ्यांतर और बाह्य मूर्छा परिग्रहः ।।17। आभ्यांतर परिग्रह चौदह प्रकार का है: 1. मिथ्यात्व, 2. स्त्रीवेद, 3. पुरुषवेद, 4. नपुसकवेद, 5. हास्य, मूर्छा को परिग्रह कहते हैं । मूर्छा का अर्थ है -- 6. रति, 7. अरति, 8. शोक, 9. भय, 10. बाह्य धन, धान्यादि तथा अन्तरंग क्रोधादि कषायों जुगुप्सा, 11. क्रोध, 12. मान, 14. माया, 14. में वे मेरे हैं ऐसा भाव रहना । लोभ । . चार संज्ञाओं में परिग्रह संज्ञा को भी परिगणित ___बाह्य परिग्रह. दस प्रकार का है :करके तत्वार्थ सार में बताया गया है कि अंतरंग में 1. खेत, 2. मकान, 3. धन-धान्य, 4. वस्त्र, 5. लोभ कषाय की उदारणता होने से तथा बहिरंग में भाण्ड, 6. दास-दासी, 7. पशू, 8. यान, 9. शय्या, उपकरणों के देखने, परिग्रह की ओर उपयोग जाने तथा 10. आसन । (दृष्टव्य-समण सुत्त, पृष्ठ 47) . मुभिाव-ममता भाव के होने से जो इच्छा होती है उसे परिग्रह संज्ञा कहते है । यह संज्ञा दशम गुणस्थान आन्तरिक शुद्धि और बाह्य शुद्धि के लिए दोनों तक होती है। (देखिए श्रीमदमृतचन्द सूरि कृत तत्वार्थ प्रकार के परिग्रह का क्रम से परित्याग आवश्यक है। सार, सम्पादक-पंडित पन्नालाल साहित्याचार्य, पृ. 46) लेकिन आभ्यांतर परिग्रह के त्याग से वाह्य आडम्बर (परिग्रह) के प्रति अनुरक्ति स्वतः नष्ट हो जाती है। परिग्रह का संचय न होकर यदि इसका आवश्यकता: मानसिक परिशुद्धि, आत्मोत्थान के लिए सर्वदा नुसार वितरण होता रहे तो संसार की विषमता शीघ्र वान्छित कही गई है। समाप्त होगी और संघर्षों में खनखनाते हुए तड़तड़ाते हुए अस्त्र-शस्त्रों का प्रलाप समाप्त हो जावेगा। अन्यथा अविनश्वर विश्रान्ति के हेतु इन्द्रियनिग्रह प्रमुख यह विरोध कभी न समाप्त होगा और सदा भवातुरता साधन है तथा एतदर्थ परित्याग सर्वप्रधान है। कहा व्याप्त रहेगी। कविवर दिनकर की ये चार पंक्तियाँ गया है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ (परिग्रह) से मुक्त, शीतीभत परिग्रह से आतंकित बेचैनी को उघाड़ती हैं उजागर प्रसन्न चित्त श्रमण जैसा मुक्तिसूख पाता है, वैसा सूख करती हैं : चक्रवर्ती को भी नहीं मिलता। . 2. तत्वार्थसार में भी इसी तथ्य.को इस प्रकार प्रमाणित किया गया है:- ममेदमिति संकल्प रूपा मूर्छा परिग्रहः ॥ 77 ।' -'यह मेरा है इस प्रकार के संकल्प रूप मूर्छा को परिग्रह कहते हैं । १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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