Book Title: Mahavir ka Aparigraha Ek Darshanik Vivechan Author(s): Shrichand Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 9
________________ अपरिग्रह की व्याख्या है कि कोई भी अपनी जरूरत निश्चयतः धन विष है कामना की अतृप्ति है, से ज्यादा न रखे...अपरिग्रह का सिद्धान्त समाजवाद से और माया का मोहक रूप है। भी आगे है। जहाँ समाजवाद की सीमा है उससे आगे भगवान महावीर ने कहा - अपरिग्रह है समाजवाद अपरिग्रह में ही निहित है, अपरिग्रह का लक्ष्य है भगवान और मनुष्य को एक बनाना। धर्म (१)-मुच्छा परिग्रहो वुत्तो। क्या है ? धर्म एक है, मानव धर्म, मानव धर्म कि मनुष्य मनुष्य का शोषण न करें समाज में ऊंच नीच का भेद (वस्तु के प्रति रहे हुए ममत्व भाव को परिग्रह कहा है।) न हो । आर्थिक असमानताएं कम हों, समाजवाद में सब मनुष्य समान होते हैं। इस प्रकार अपरिग्रह और (2) वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते समाज का अटूट सम्बन्ध है समाजवाद लोकतांत्रिक इम्मि लोए अदुवा परत्था । तरीके से आता है तानाशाही से नहीं।' (प्रमत्त पुरुष धन के द्वारा न तो इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक में ही।) धन शाप है वरदान नहीं (3) नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि, सांसरिक संघर्ष का प्रमुख कारण धन है जिसके सव्व जीवाणं सव्व लोए । लिए पिता पत्र की हत्या करता है, पति पत्नी को म त्य के मुख में डालता है, और भाई बहन के गले को दवाते (विश्व के सभी प्राणियों के लिए परिग्रह के समान हुए भी नहीं हिचकता है। एक अंग्रेजी कहावत है दूसरा कोई जाल नहीं बंधन नहीं ।) जिसमें कहा गया है कि धन ही सब अनर्थों की जड़ है। (4) बहुपि लद्धं न निहे इस धन अर्जन में दुखः है संरक्षण में कष्ट है तथा इसके परिग्गहाओ अप्पाणं अवसविकज्जा । व्यय में वेदना होती है इसलिए यह धन निरंतर पीडा दायक है इसमें सुख कहाँ ? (बहुत मिलने पर भी संग्रह न करे । परिग्रह-वृत्ति __ से अपने को दूर रखे।) अर्थानामर्जने दुःखं अजितानाञ्चरक्षणे । (5) जया निविदए भोगे, जे दिव्वे जे य माणुसे । आये दुःखं व्यये दुःखं घिगर्थ शोक भाजनम् ।। तया चयइ संजोगं, सभितर-बाहिरं ।, __एक संस्कृत कवि (जब मनुष्य दैविक और मानुषिक (मनुष्य संबंधी) धन का सदुपयोग यही है कि हम इसका संचय भोगों से विरक्त हो जाता है, तब आभ्यन्तर और बाह्यन करें अपितु जरूरतमंदों में इसे बांट दें: परिग्रह को छोड़कर आत्म साधना में जूट जाता है।) पानी बाढ़ नाब में, घर में बाढ़े दाम । दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ।। (6) जे पावकम्मेहि धणं मणूसा, समायन्ती अमयं गहाय ॥ 9. मोरारजी देसाई-समाजवाद-अपरिग्रह के सिद्धान्त में निहित-'तीर्थ कर', जून 1972., पृष्ठ 37. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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