Book Title: Mahavir ka Aparigraha Ek Darshanik Vivechan
Author(s): Shrichand Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 10
________________ पहाय ते पास पर्याट्ठिए नरे । वेराणुबद्धा नरयं उणेंति ॥ ( जो मनुष्य धन को अमृत मानकर अनेक पाप कर्मों द्वारा उसका उपार्जन करते हैं, वे धन को छोड़कर मौत के मुँह में जाने को तैयार हैं, वे बैर से बँधे हुए मरकर नरकवास प्राप्त करते हैं ।) (7) परिग्गह निट्ठिाणं, वैरं तेसि पवड्ढई । ( जो परिग्रह संग्रह वृत्ति में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति बैर की ही अभिवृद्धि करते 1) (8) थोवाहारो थोवभणिओ य, जो होइथोवनिछोय थोवो हि उवगरणो, तत्स हु देवा वि पणमंति । ( जो साधक मिताहारी, मितभाषी मित-शायी और मिल परिग्रही है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं ।) है | ) ( 9 ) जे ममाइअ मई जहाइ से जहाइ ममाइअं । ( जो साधक अपनी ममत्व बुद्धि का त्याग कर सकता है वही परिग्रह का त्याग करने में समर्थ हो सकता है | ) ( 10 ) एतदेव एगेसि महब्भयं भवइ । ( परिग्रह ही इस लोक में महाभय का कारण होता ( 11 ) लोहस्सेस अणुप्फासो, मन्न अन्नयरामव । ( संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है ।) ( 12 ) मा नो द्विक्षत कश्चन । ( हम किसी से द्व ेष न करें) ( 13 ) नाञ्ञमञ्जस्स दुक्खमिच्छेय | Jain Education International (कोई भी किसी दूसरे के लिये दुःख की इच्छा न करें । ) ( 14 ) सब्वे सत्ता अवेरिनो होन्तु मा वेरिनो । (सभी व्यक्ति अबेर बनें कोई भी किसी के साथ बैर न रखें ।) ( 15 ) सब्वे सत्ता भवन्तु, सुखवत्ता । (संसार के सभी जीव सुखी हों, सुखी रहें !) ( श्री गणेश मुनि शास्त्री, सं.- भगवान महावीर के हजार उपदेश) यह शरीर भी परिग्रह है जिस शरीर के लिये इतने अधिक आडम्बर एकत्रित किए जाते हैं तथा जिसकी संरक्षा के हेतु रात-दिन चितित रहना पड़ता है वह तन भी कम विघातक नहीं है । करोड़ों के सौन्दर्य प्रसाधन इसी देह की कमनीयता की बुद्धि को अधिक आकर्षक बनाने के लिए खरीदे जाते हैं । इस भौतिक युग में चंचल तरुणाई अधिक भ्रमित है जिसका कारण शारीरिक सुन्दरता कही जा सकती है । भगवान् महावीर ने परिग्रह को तीन रूपों में विभाजित किया है जिसमें शरीर को भी परिग्रह बताया गया है। कर्मपरिग्रह, शरीरपरिग्रह, वाह्यभण्ड मात्र उप करण परिग्रहः तिविहे परिग्गहे पण ते त जहाकम्म – परिग्गहे, बाहिर भंडमत्त परिग्गहे । परिग्रही नरक में जाता है अर्थादि संग्रह में लोलुपी जितना पर-पीड़न करता है उससे हजार गुना कष्ट उसे भोगना न्यायतः समुचित १३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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