________________ ही है। इसलिए परशोषक को नारकीय जीवन रो-रो और बेचे जाते थे। विलासता, वैभव का उच्छखल कर बिताना ही चाहिए अन्यथा शुभाशुभ कर्मों का ताण्डव नृत्य था। भगवान ने सामाजिक विषमता प्रतिफलन कैसे प्रमाणित होगा। आचार्य श्री उमा- को समझा एवं उसके परिमार्जन में सफल प्रयास किये। स्वामी ने मोक्षशास्त्र (तत्वार्थसूत्र) के अध्याय 6 में (देखिए महावीर युग में समाज और धर्म की स्थिति कहा है कि बह्वारम्भ परिग्रहत्व नारकस्या यषः / लेखक डा. ज्योति प्रसाद जैन, भगवान महावीर स्मति बहुत आरंभ और परिग्रह का होना नरक आयु का ग्रन्थ खण्ड 3, पृष्ठ 3 1) अस्तित्व है। इसी प्रकार माया (छल-कपट) तिर्यञ्च आयु का आस्त्रव है:--माया तैर्यग्योनस्य (मोक्षशास्त्र जिस प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए शुद्ध आचार अध्याय 6 सूत्र 16) निष्पक्ष विचारक इस मान्यता के विचार आवश्यक है उसी प्रकार मानवता के उदात्त पूर्ण समर्थक हैं कि परिग्रह जब स्वयँ नरक है तब उपके संरक्षण में अपरिग्रहवाद सर्वोपरि है। इस सजनात्मक स्नेही को पातकी बनकर नरक में रहना और तड़पना सत्य के दृष्टिकोण को भगवान ने भली मांति अंगीकार स्वाभाविक ही है। कर अपरिग्रह की गरिमा को बहुरूपों में समाज के सन्मुख प्रस्तुत किया और कराहती हई इन्सानियत को वीर-युग-अनेक द्वन्दों का आतंक शुद्ध जिजीविषा प्रदान की। भगवान महावीर का यही महावीर के समय को यदि आत्मधातौ कहा जाय तो अपरिग्रह है और यही जैन मत का मूलाधार है। कुछ सीमा तक अनुचित नहीं है। इस युग में मानवता खंडित थी, धर्मों के रूप प्रशस्तन, थे स्वार्थपूर्ण मनोवृ. यदीया बांग्गंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला। त्तियां जनता के मानस को खसोट रही थीं एवं दीन बहद् ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति / अमीर का भेद व्यापकता ले चुका था। नारी का करुण इदानीमप्येषा बुधजन-मरालः परिचिता / क्रन्दन किसी ह्दय को प्रभावित करने में असमर्थ था / महावीर स्वामी नयस-पथ-गामी भवंतु नः / दास दासियाँ बाजारों में मूक पशुओं की तरह खरीदे -पंडित भागचन्द्र. महाबीराष्टक. 134 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org