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आमुख
साध
संसार-दावानल-दाह नीरं सम्मोह-धूली-हरणे समीरं। माया रसा दारण-सार-सीरं
नमामि वीरं गिरि-सार-धीरं॥ संसार रूपी दावानल में ताप को शांत करने में जल के समान, अज्ञानरूपी धूल को दूर करने में वायु के समान, माया रूपी पृथ्वी को चीरने में तीखे हल समान और मेरु पर्वत जैसे स्थिर-श्री महावीर प्रभु को कोटिशः कोटिशः नमन। करुणानिधि-कृपानिधान शासनपति भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने जब केवलज्ञान-केवलदर्शन रूपी लक्ष्मी का वरण किया, तब उन्होंने इस संसार में केवल दुःख ही दुःख देखा। उनकी करुणा अपार थी। इस विश्व की प्रत्येक आत्मा के लिए उनमें असीम दया थी। सतत् रूप में धर्मगंगा प्रवाहित होती रहे, भव्य जीव इस संसार सागर से तिर सके, इस उद्देश्य से उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की - -साध्वी-श्रावक-श्राविका। इस संघ को वे स्वयं भी नमस्कार करते हैं।
चतुर्विध संघ के समुचित संचालन हेतु प्रभु ने अपूर्व व्यवस्था का निरूपण किया। यूँ तो संघ में निरतिचार-निर्दोष संयम का प्रतिपादन और पालन होता रहे, तीर्थंकर परमात्मा की वाणी का यथावत् प्रवाह होता रहे, इसका दायित्व संघ के एक-एक सदस्य का है, किंतु उसमें भी 'णमो आयरियाणं' पद में वंदनीय, ऐसे शासनप्रभावक सूरि सम्राट-आचार्य भगवंतों का विशेष दायित्व होता है। संबोध प्रकरण में कहा गया है
“सो भावसूरि तित्थयर-तुल्लो जो जिणमयं पयासेइ" अर्थात् - जो आचार्य जिनेश्वर परमात्मा के मत को यथार्थ रूप से प्रकाशित करते हैं, वे भावाचार्य तीर्थंकर तुल्य है।
संघ का योग और क्षेम करना आचार्य भगवंतों का महत्त्वपूर्ण दायित्व होता है अर्थात् सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी प्राप्त कराना एवं स्थिरता से वृद्धि को प्राप्त कराना। भगवान् महावीर स्वामी जी की परम्परा में जिनधर्म-जिनशासन को समर्पित अनेकानेक गुरु भगवंत हुए हैं। उनमें भी प्रभु महावीर