Book Title: Mahavir Darshan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 10
________________ और आखिर आया वह दिन - अपने को पहचानने हेतु जाने का, सर्वसंग परित्याग के - महाभिनिष्क्रमण के - भागवती दीक्षा के 'अपूर्व अवसर' का ....। (सूरमंडल) 'पलायन' से नहीं, क्षमा समझौता और स्नेह से ली गई इस भागवती दीक्षा के समय ही जन्मजात तीन ज्ञानवाले वर्धमान महावीर को चौथा (मन वाले जीवों के मनोभावों को जाननेवाला) “मनःपर्यव ज्ञान" उत्पन्न हुआ और वे चल पड़े अपनी आत्मा को दिलानेवाले पंचम ज्ञान और पंचम गति मोक्ष को खोजने-अनंत, अज्ञात के आत्मपथ पर : एकाकी, अकेले, असंग...। (सूरमंडल) (गीत) “साँप की केंचुलि माफिक एक दिन, इस संसार का त्याग करे। राज प्रासादों में रहनेवाला, जंगल जंगल वास करें।" उनकी इस ह्यदयविदारक विदा की बेला, इस 'ज्ञातखंडवन' की धरा में खो जाते हुए उनको देखकर पत्नी यशोदा, पुत्री प्रियदर्शना एवं बंधु नंदीवर्धन के विरहवेदना से भरे विलाप-स्वर गूंज उठे - (करुणतम गीत श्लोक) त्वया विना वीर! कयं व्रजामो? गोष्ठिसुखं केन ... सहाचरामो,..." (M) "हे वीर ! अब हम आप के बिना शून्यवन के समान घर को कैसे जायँ ? हे बन्धु ! अब हमें गोष्ठि-सुख कैसे मिलेगा? अब हम किस के साथ बैठकर भोजन करेंगे?" - लेकिन निग्रंथ, निःसंग, निर्मोही महावीर तो चल पड़े हैं - प्रथम प्रस्थान से ही यह भीषण भीष्म-प्रतिज्ञा किए हुए कि (M)(प्रतिध्वनि) “बारह वर्ष तक, जब तक मुझे केवलज्ञान नहीं होगा, तब तक न तो शरीर की सेवा-सुश्रूषा करूंगा, न देव मानव-तिथंच के उपसर्गों का विरोध-करूंगा, न मनमें किंचित् मात्र उद्वेग भी आने दूंगा।" यहीं से शुरु हो रही इन सभी भीषण प्रतिज्ञाओं की कसौटी-रूप उनकी साड़े बारह वर्ष की आत्म-केन्द्रित साधनायात्राजिसमें इन्द्र तक की सहाय प्रार्थना भी अस्वीकार कर के, और भी भीषण प्रतिज्ञाएँ जोड़ते हुए, वे आगे चले - (सूरमंडल ध्वनि : मेघगर्जन, हिंसक प्राणी गर्जन, भयावह वन वातावरण ध्वनि)

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