Book Title: Mahavir Darshan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 13
________________ (F) (M) (F) - (M) (F) इसी ..... ( गान - धून ) (F) - (M) वीर प्रभु को दे दी भिक्षा, प्रभु ने भावी में दे दी दीक्षा । श्रधा के दीपक से दिल में (F) कर दिया दिव्य प्रकाश ।। तेरा... चन्दनबाला ......। और उन अनेक उपसर्गों की कतारों को पार करते करते ध्यानमस्त तपस्वी महावीर अपने निर्ग्रन्थ जीवन के साड़े बारह वर्षों के पश्चात् ... एक दिन.... आ पहुँचे अपनी उद्देश्य - सिध्धि, अंतिम आत्मसिध्धि के द्वार पर ... (दिव्य मंद ध्वनि : वायब्रो) (F) (अति भावपूर्ण स्वर) वह ढ़लती दोपहरी ... वह जृम्भक ग्राम ... श्यामल धरती ... . और वही शाल का वृक्ष ..... ! (M) (प्रतिध्वनि) “मैं इन सभी संगों से सर्वथा, सर्वप्रकार से भिन्न केवल चैतन्य स्वरूपी ज्ञाता दृष्टा आत्मा हूँ: विशुध्द, स्वयंपूर्ण, असंग । मेरी यह परिशुष्ध आत्मा ही परमात्मा का स्वरूप है " - "अप्पा सो परमप्पा" । (वाद्य-झंकार) "सच्चिदानंदी शुध्ध स्वरूपी, अविनाशी मैं आत्मा हूँ ।" "भाते आतमभावना जीव पाये केवलज्ञान रे (2)” “आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे ( 2 ) " (वाद्य ध्वनि) ( शब्दचित्र) वह ऋजुवालुका नदी वह खेत की बस इसी वृक्ष के नीचे, गोदोहिका आसन में पराकोटी के शुक्ल ध्यान मे लीन निर्ग्रन्थ महावीर...! आत्मध्यान के इस सागर की गहराई में उन्हें यह स्पष्ट, पारदर्शी अनुभूति हो रही है कि - और अपनी निःसंग आत्मा का यह ध्यान सिध्ध होते ही प्रस्फुटित होती है उनके वदन पर प्रफुल्ल प्रसन्नता .... और आत्मा में उस सर्वदर्शी, परिपूर्ण, पंचमज्ञान - केवलज्ञान और केवलदर्शन की ज्योति (दिव्य वाद्य संगीत .....) (सूत्रघोष ) ॥ जे एगं जाणइ से सव्वं बाणइ ॥ निर्ग्रन्थ महावीर अब रागद्वेषादि की सब ग्रंथियों को सर्वथा भेदकर बन चुके हैं आत्मज्ञ, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग, अरिहंत तीर्थंकर भगवंत... उनके दर्शन और देशना उपदेश - श्रवणार्थ देवों के विमान उड़े, मानवों के समूह उमड़े, पशुओं के झुंड (वृंद) दौड़े, दिव्य समवसरण खड़े हुए, अष्ट प्रतिहारी सेवा

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