Book Title: Mahapragna Sahitya Author(s): Dulahrajmuni Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 7
________________ प्रस्तुति जिस देश और समाज का साहित्य जितना विशद और व्यापक होता है, वह देश और समाज उतना ही तेजस्वी और प्रकाशमान होता है। साहित्य अतीत और अनागत को जोड़कर नए-नए उन्मेष देता है। केवल शब्द-संकलन ही साहित्य नहीं कहलाता बल्कि जो जीवन्त समस्या को समाहित करता है तथा वर्तमान और भविष्य को बांधकर साथ में चलता है वह साहित्य कहलाता है । सत् साहित्य में असीमित शक्ति होती है क्योंकि वह प्राणियों में संस्कार और स्फूर्ति भरता है । साहित्य पारदर्शी स्फटिक है । उसमें प्रतिबिम्बत होता है सम्पूर्ण युग। साहित्यकार जिस काल, क्षेत्र, पंरपरा और विचारों में पलता-पुषता है, उन सबका प्रतिबिम्बन उसके द्वारा लिखित साहित्य में होता है। युग-चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाला साहित्यकार अकेला नहीं होता, वह व्यष्टि में समष्टि को भरकर चलता है । उसके विचारों का तादात्म्य युग-चेतना से होता है और तब उन विचारों में संपूर्ण युग का प्रतिनिधित्व करने का सामर्थ्य आ जाता है। अंग्रेजी में साहित्य को लिटरेचर कहते हैं । यह शब्द लेटर से अर्थात् वर्ण या अक्षर से बना है। इसका अर्थ है जहां भी वर्ण है वहां साहित्य है, चाहे वह उच्चरित हो अथवा लिखित या मौखिक । युवाचार्यश्री ने लेखन की अपेक्षा प्रवचन अधिक किए हैं। भारत में अनेक महान वक्ता हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन्त शब्दों से जन-जीवन को जगाया है। इसी परम्परा में युवाचार्यश्री प्रखर वक्ता के रूप में भारतीय जनमानस में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए युवाचार्यश्री जैन कुल में जन्मे। पिता का अल्पकालीन साया रहा। माता ने बच्चे को पाला-पोसा, संस्कार दिए और वे बीज रूप में दिए गए संस्कार धीरे-धीरे अंकुरित हुए और एक दिन देखा कि वह लघु अंकुर वटवृक्ष की तरह फैल गया है । वटवृक्ष की असंख्य शाखाओं की तरह युवाचार्यश्री के विचार उभरे पर वे सब मूल से संघटित थे। मूल था अध्यात्म । इसलिए प्रत्येक विचार अध्यात्म से अनुप्राणित, अनुश्वसित और अनुरंजित रहा। धीरे-धीरे आपने दर्शन का अध्ययन किया और दर्शन के अनेक ग्रन्थों का तलस्पर्शी पारायण कर मूर्धन्य दार्शनिक बन गए । तर्कशास्त्र पढ़ा, शब्दशास्त्र को हस्तगत किया, विचारों के समुद्र में उन्मज्जन-निमज्जन किया और अध्यात्म की जड़ को इस तरह सींचा कि उनका प्रबुद्ध मन बोल उठा - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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