Book Title: Mahakavi Samay Sundar aur unka Chattisi Sahitya
Author(s): Satyanarayan Swami
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 4
________________ ३२८ ] सत्यनारायण स्वामी प्रेम.ग्रे. की गई थी।' कवि ने लिखा है कि भगवान महावीर के काल से लेकर अब तक तीन द्वादशवर्षीय दुष्काल पड़े थे किंतु जैसा संहार उस वर्ष के अकाल में हुआ, वैसा पूर्व के उन लंबे अकालों में भी नहीं हुआ ।२ और इस सत्यानाशी 'सत्यासीये' का शमन किया 'अठ्यासीया' (वि० सं० १६८८ के वर्ष) ने । वर्ष के आरंभ में ही खूब जोरों की वर्षा हुई । धरती धान से हरी-भरी हो उठी। लोगों में धैर्य का संचार हुआ। खाद्य पदार्थ सस्ते हो गये । लोगों का उल्लास लहरें लेने लगा। 'मरी' और 'मांदगी' (महामारी) मुह मोड़ चले । हां साधुओं की दशा अभी तक चितनीय थी। धीरे-धीरे उनकी भी सेवा और आदर की ओर ध्यान दिया गया। इस प्रकार गुजरात में पुनः प्रानन्द का साम्राज्य हो गया ! बड़ी सुन्दर और सरस शैली तथा सरल भाषा में लिखित इन मुक्तकों में कवि ने खुलकर अपनी भावुकता-सहृदयता का परिचय दिया है । जहाँ अंक मोर वह तत्कालीन प्रजा की दयनीय स्थिति का चित्रण करता है, वहां दूसरी ओर वह उस दुष्काल को जमकर गालियां भी निकालता है । अकाल के प्रति की गई इन कटूक्तियों में कवि की कलात्मकता तो झलकती ही है, मानवता के प्रति उसका अगाध स्नेह भी इनमें परिलक्षित होता है। और सच तो यह है कि इस स्नेह भावना के कारण ही उसकी इन उक्तियों का उदुभव हुआ है १. समयसुदर कहइ सत्त्यासीयउ, पड्यो अजाण्यउ पापीयउ ।।२।। २. दोहिलउ दंड माथइ करी, भीख मंगावि भीलड़ा। समयसूदर कहइ सत्त्यासीया, थारो कालो मुह पग नीलड़ा॥५॥ ३. कूकीया घरां श्रावक किता, तदि दीक्षा लाभ देखाडीया । समयसुदर कहइ सत्त्यासीया, तइं कुटुंब बिछोडा पाडीया ॥१०॥ सिरदार घणेरा संहा, गीतारथ गिणती नहीं। समयसुदर कहइ सत्त्यासीया, तु हतियारउ सालो सही ।।१८।। ५. दरसणी सहूनइ अन्न द्यई, थिरादरे थोभी लिया । समयसुदर कहइ सत्त्यासीया. तिहाँ तु नइ धक्का दिया ।।२५।। ६. समयसुदर कहइ सत्यासीयउ, तु परहो जा हिव पापीया ॥२८।। रसों में करुण और अलंकारों में अनुप्रास की प्रधानता है। छंद सर्वया है। गुजराती मिश्रित १. स. कृ. कु. छंद २१-२३, पृ० ५०७-८, २. महावीर थी मांडी, पड्या त्रिण बेला पापी; बार बरषी दुःकाल, लोक लीधा, संतापी परिण प्रेकलइ प्रेक तई ते कीयउ, स्युबार वरसी बापड़ा; समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, बारै लोके न लह्या लाकड़ा ।।२६।। (स. कृ. कु. पृ० ५०६) मरगी नई मदवाडि, गया गुजरात थी नीसरि; गयउ सोग संताप, घणो हरख हुयउ घरि घरि । गोरी गावइ गीत, वली विवाह मंडाणा., लाडू खाजा लोक, खायइ थाली भर भांरणा ॥ शालि दालि घृत घोल सु, भला पेट काठा भर्या । समयसुन्दर कहइ अध्यासीया, साध तउ अजे न सांभों ॥३३॥ (स. कृ. कु. पृ०५११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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