Book Title: Mahakavi Samay Sundar aur unka Chattisi Sahitya
Author(s): Satyanarayan Swami
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 13
________________ सत्यनारायण स्वामी [ ३३७ (७) पालोयरणा छत्तीसी कुल ३६ पद्यों की प्रस्तुत छत्तीसी का सृजन महाकवि ने संवत् १६६८ में अहमदाबाद में किया।' वर्ण्य-विषय कृति का प्रमुख कथ्य है-शुद्ध अंतःकरण से अपने किए हुए पापों की आलोचना करने से अर्थात् पश्चाताप करने से प्राणी उनके दुष्परिणामों से मुक्त हो सकता है। शुद्ध हृदय से कहा गया 'मिच्छामि दुक्कडं' अनेक पापों के पलायन में समर्थ है चाहे वह कितने ही भयंकर और दुष्परिणामप्रद क्यों न हों।२ किंतु इस मिच्छामि दुक्कडं' करने के पश्चात् मुक्तिकामी को उस अकृत्य को सदा के लिए न करने का व्रत ले लेना चाहिए। इसके साथ ही कवि ने उन कृत्यों का भी उल्लेख किया है जिनके करने से जीव पाप का भागी होता है। उनमें प्रमुख हैं- असत्य-भाषण, चोरी, परदारगमन और किसी निरपराधी का अकारण जीवहनन करना आदि । जो लोग मिथ्या भाषण करते हैं अथवा किसी को मिथ्या कलंक लगाते हैं उनके गले में गलजीभी जैसा रोग हो जाता है जिसके कारण मुह टेढ़ा हो जाया करता है।४ जीभ के स्वाद के लिए मारा गया प्राणी भव-भव में अपने अपराध का बदला लेता है, अपने हत्यारे के साथ युद्ध करता है और उसे मार डालता है। लगभग ऐसी ही दुर्गति चोरों की हा करती है। परदार-सेवन जैसे दुष्कृत्यों के क्षणिक सुख में मस्त रहने वाले काम-कीटों को नर्क में गर्म की हुई लौह-पुतली का आलिंगन करने जैसी अनेक यातनाएं सहनी पड़ती हैं परस्त्री नइ भोगवी, तुच्छ स्वाद तूं लेसि । पिण नरके ताती पूतली, आलिंगन देसि ॥१५।। घाणी, घट्टी अोखली में कई बार असावधानी से छोटे-छोटे जीवों की हत्या हो जाती है। यदि उनके लिने क्षमापना (पापालोचना) नहीं की जाती है तो जैसे प्राणी को नर्क में घाणी के अन्दर पील दिया जाता है (स. कृ. कु. पृ० ५४७) १. संवत् सोल अट्ठाणूए, अहमदपुर मांहि । समयसुदर कहइ मइ करी, आलोयणा उच्छाहि ॥३६॥ २. पाप पालोय तू आपणां, सिद्ध प्रातम साख । पालोयां पाप टियइ, भगवंत इणि परि भाख ॥१॥ ३. मिच्छामि दुक्कडं देइ नै, पछइ लेजे तू सूसि ॥२६॥ ४. झूठ बोल्या घणा जीभड़ी, दीधा कूड़ कलंक । गलजीभी थास्य गलै, हुस्यइ मुहड़ों त्रिबंक ॥१३॥ ५. जीभ नइ स्वाद माऱ्या जिके, ते मारस्यइ तुज्झ । भव मांहे भमता थका, थास्य जिहां तिहां जुज्झ ।।१२।। ६. परधन चोरचा लूटिया, पायउ ध्रसकउ पेट । भूख्यो भमि संसार मां, निर्धन थकउ नेट ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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