Book Title: Mahakavi Samay Sundar aur unka Chattisi Sahitya
Author(s): Satyanarayan Swami
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 1
________________ महाकवि समयसुंदर और उनका छत्तीसी - साहित्य राजस्थान में अक कहावत है- 'समयसुंदर - रा गीतड़ा, कुंभे राणे-रा भींतड़ा' अर्थात् जिस प्रकार महाराणा कुंभा द्वारा बनवाये हुये संपूर्ण मकानों, मंदिरों, स्तंभों और शिलालेखों आदि का पार पाना अत्यंत कठिन है उसी प्रकार समयसुंदरजी विरचित समस्त गीतों का पता लगाना भी दुष्कर कृत्य है; उनके गीत अपरिमित हैं । यह महाकवि समयसुंदर १७ वीं शताब्दी के लब्धप्रतिष्ठ राजस्थानी जैन कवि हु हैं । उनका जन्म पोरवाल जातीय पिता श्री रूपसिंह श्रौर माता लीलादेवी के यहाँ अनुमानतः संवत् १६१० में सांचोर ( सत्यपुर) में हुआ । बाल्यावस्था में ही उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर क्रमश: महोपाध्याय-पद प्राप्त किया । मधुर स्वभावी महाकवि अपनी अप्रतिम विद्वत्ता और अनूठे व्यक्तित्व से अपने जीवन काल में ही प्रशंसित हो चुके थे । उन्होंने भारत के अनेक प्रदेशों का भ्रमण करके अपनी नानाविध रचनाओं और सदुपदेशों द्वारा तत्रस्थ जनसमुदाय को कल्याणपथ की ओर अग्रसर किया । सौभाग्यवश महाकवि ने दीर्घायु प्राप्त की थी । सं० १७०३ में उन्होंने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अहमदाबाद में समाधिपूर्वक नश्वर देह को त्यागकर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । अपनी इस दीर्घायु में महाकवि ने संस्कृत, प्राकृत और राजस्थानी की अनेक रचनाओं कीं । 'इनकी योग्यता श्रंवं बहुमुखी प्रतिभा के संबंध में विशेष न कहकर यह कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी कि कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य के पश्चात् प्रत्येक विषयों में मौलिक सर्जनकार वं टीकाकार के रूप में विपुल साहित्य का निर्माता ( महाकवि समयसु दर के अतिरिक्त) अन्य कोई शायद ही हुआ हो !' ' 'सीताराम चौपई' नामक वृहत्काय जैन रामायण महाकवि की प्रतिनिधि रचना है। उनके अपरिमित गीत भी बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । महाकवि के संबंध में विस्तृत जानकारी अवं उनकी लघु रचनाओं के रसास्वादन के लिये श्री अगरचंद नाहटा और भंवरलाल नाहटा संपादित 'समयसुंदर - कृति - कुसुमांजलि' दृष्टव्य है । यहां प्रस्तुत है महाकवि के छत्तीसी - साहित्य का संक्षिप्त परिचय | छत्तीसी मुक्तक रचनाओं का अक प्रकार है 'छत्तीसी' । असी रचना जिसमें छत्तीस पद्य हों, छत्तीसी कहलाती है । इसमें छंद कोई भी सकता है, पर उसके संपूर्ण पद्यों का उसी छंद में होना आवश्यक है । कहीं-कहीं छत्तीस के स्थान पर सैंतीस पद्य भी देखने को मिलते हैं, परंतु वहां सैंतीसवां पद्य रचना के विषय से थोड़ा भिन्न और उसका उपसंहार - सूचक होता है । इसी प्रकार इन छत्तीसियों का विषय कोई भी हो सकता है, पर वर्णनात्मकता और श्रोपदेशिकता की इनमें प्रधानता पायी जाती है । १. महोपाध्याय विनयसागर : Jain Education International 'समयसुंदर कृति कुसुमांजलि' गत निबंध 'महोपाध्याय समयसुदर' पृष्ठ १. (प्रकाशक - नाहटा ब्रदर्स, ४ जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता-७ ). For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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