Book Title: Mahakavi Samay Sundar aur unka Chattisi Sahitya Author(s): Satyanarayan Swami Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 9
________________ समयसुन्दर और उनका छत्तीसी साहित्य [ ३३३ कामना से अगले चातुर्मास पर कोश्या वेश्या के यहां रहने की गुरु से अनुमति चाही । आदेश मिलने पर वह वहां गया, किंतु पूर्वोक्त क्रोध के कारण वह संयम-पथ से विचलित हो गया और चातुर्मास के बीच में ही उसे कोश्या को प्रसन्न करने के लिए रत्नकंबल लाने के लिये नेपाल जाना पड़ा सिंह गुफा वासी ऋषि कीघउ, थूलिभद्र ऊपर कोप जी। वेश्या वचने गयउ नेपाले, कीघउ संजम लोप जी ।। २८।। हलाहल विष प्राणी को अक ही बार मारता है किंतु क्रोध उससे भी अधिक बलिष्ठ है। अनेक बार किया गया क्रोध उतनी ही बार प्राणी को मृतकवत् बना देता है। क्रोधावस्था में किये जप, तप आदि सुकृत्य किसी भी काम के नहीं रहते और वैसे क्रोध से लाभ भी तो कुछ नहीं होता। क्रोधी स्वयं उस कोपाग्नि में जलता है और दूसरों को भी जलाता है विष हलाहल कहियइ विरुयउ, ते मारइ इक वार जी। पण कषाय अनंती वेला, आपइ मरण अपार जी ॥३१॥ क्रोध करता तप जप कीधा, न पड़ई कांइ ठाम जी। पाप तपे पर नई संतापइ, क्रोध सकेहो काम जी ॥३२॥ अंत में कवि क्षमा-गुरण पर रीझ कर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करता दृष्टिगत होता है क्षमा करंता खरच न लागइ, भांगे कोड़ कलेस जी। अरिहंत देव आराधक थावइ, व्यापइ सुयश प्रदेश जी ॥३३॥ (४) कर्म छत्तीसो ___ इस छत्तीसी में भी कुल छत्तीस पद्य हैं जिनकी रचना मुलतान नगर में सं० १६६८ के मार्गशीर्ष शुक्ला ६ के दिन हुई। वर्ण्य विषय इस रचना में कवि ने कर्म की सबलता का उल्लेख किया है। प्रत्येक जीवधारी कर्मों के वशीभूत है। बिना कर्मों के फल को भोगे कोई भी उनसे विमुक्त नहीं हो सकता । अतुलबली तीर्थ कर और चक्रवर्ती तथा वासुदेव-प्रतिवासुदेवों तक को कर्म अपने चंगल में फंसाये रखते हैं। ___ कृति में कवि ने उन पौराणिक महान आत्मानों की नामावली दी है जिन्हें कि कर्म की कठोर विडंबना सहनी पड़ी थी । प्रमुख नाम इस प्रकार हैं-भगवान आदिश्वर, मल्लिनाथ तीर्थ कर,४ भगवान १. सकलचंद सदगुरु सुपसाये सोलह सइ अड़सठ्ठ जी । करम छत्तीसी ए मई कधी, माह तरणी सुदी छठ्ठ जी ॥३५।। --कर्म छत्तीसी (स. कृ.कृ. पृ०५३३) २. कर्मथी को छूटइ नहीं प्राणी, कर्म सबल दूख खाणजी ।। कर्म तणइ वस जीव पड्या सहु, कर्म करइ ते प्रमाण जी ॥१॥ तीर्थ कर चक्रवत्ति अपुल बल, वासुदेव बलदेव जी । ते परिण कर्म विटंब्या कहिये, कर्म सबल नितमेव जी ।।२।। मल्लिनाथ तीथ कर लाघउ, स्त्री तणउ अवतार जी। तप करतां माया तिण कीधी, करमे न गिरणी कार जी ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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